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________________ इस सूत्र की व्याख्या में धवलाकार ने इस साधिक वर्ष प्रमाण उत्कृष्ट अन्तर को स्पष्ट किया है व निरन्तर छह मास प्रमाण अन्तर को असम्भव बतलाया है। अन्त में उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि किन्हीं सूत्र पुस्तकों में पुरुषवेद का अन्तर छह मास भी उपलब्ध होता है।' (२०) पाहुडसुत्त-जीवस्थान-चूलिका में प्रथम सम्यक्त्व के अभिमुख हुआ जीव मिथ्यात्व के तीन भाग कैसे करता है, इसे स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि जिस मिथ्यात्व का पूर्व में स्थिति, अनुभाग और प्रदेश की अपेक्षा घात किया जा चुका है उसके वह अनुभाग से पुनः घात करके तीन भाग करता है, क्योंकि "मिथ्यात्व के अनुभाग से सम्यग्मिथ्यात्व का अनुभाग अनन्तगुणाहीन और उससे सम्यक्त्व का अनुभाग अनन्तगुणा हीन होता है" ऐसा पाहुडसुत्त में कहा गया है। (२१) पाहुडचुण्णिसुत्त-इसी जीवस्थान-चूलिका में सूत्रकार द्वारा आहारकशरीर, आहारकअंगोपांग और तीर्थकर प्रकृति का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण निर्दिष्ट किया गया है। --सूत्र १,६-६,३३ इसकी व्याख्या में उसे स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने कहा है कि अपूर्वकरण के प्रथम समय सम्बन्धी स्थितिबन्ध को सागरोपमकोटि लक्षपृथक्त्व प्रमाण प्ररूपित करने वाले पाहुंडचुण्णिसुत्त के साथ वह विरोध को प्राप्त होगा, ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वह दूसरा सिद्धान्त है। आगे विकल्प के रूप में उसके साथ समन्वय भी कर दिया गया है। (२२) पाहुडसुत्त-इसी जीवस्थान-चूलिका में आगे नारक आदि जीव विवक्षित गति में किस गुणस्थान के साथ प्रविष्ट होते हैं व किस गुणस्थान के साथ वहां से निकलते हैं, इसे स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने उस प्रसंग में आगे कहा है कि इसी प्रकार से सासादन गुणस्थान के साथ मनुष्यों में प्रविष्ट होकर उसी सासादन गुणस्थान के साथ उनके वहाँ से निकलने के विषय में भी कहना चाहिए, क्योंकि इसके बिना पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र काल के बिना सासादनगणस्थान बनता नहीं है। आगे उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया है कि यह कथन पाहुडसुत्त के अभिप्राय के अनुसार किया गया है। किन्तु जीवस्थान के अभिप्रायानुसार संख्यात वर्ष की आयुवाले मनुष्यों में सासादनगुणस्थान के साथ वहाँ से निकलना सम्भव नहीं है, क्योंकि उपशम श्रेणि से पतित हुए जीव का सासादनगुणस्थान को प्राप्त होना असम्भव है। पर प्रकृत में संख्यात व असंख्यात वर्ष की आयुवालों की विवक्षा न करके सामान्य से वैसा कहा गया है, इसलिए उपर्युक्त कथन घटित हो जाता है।" १. धवला पु० ५, पृ० १०५-६ २. धवला पु. ६, पृ० २३४-३५; णवरि सवपच्छा सम्मामिच्छत्तमणंतगुणहीणं । सम्मत्त____ मणंतगुणहीणं ।-क०पा० सुत्त, पृ० १७१, चूणि १४६-५० ३. धवला, पु० ६, पृ० १७७ ४. धवला, पू०६, १०४४४-४४५; एदिस्से उवसमसम्मत्तत्तद्धाए अभंतरदो असंजमं पि गच्छेज्ज, संजमासंजमं पि गच्छेज्ज, दो वि गच्छेज्ज, छसु आवलियासु सेसासु आसाणं पि गच्छेज्ज । आसाणं पुण गदो जदि मरदि ण सक्को णिरयगदि तिरिक्खगदि मणुस्सगदि वा गंतु, णियमा देवगदि गच्छदि। हंदि तिसु आउएसु एक्केण वि बद्धेण आउगेण ण सक्को कसाए उवसामेदु ।-क०पा० सुत्त, पृ० ७२६-२७, चूर्णि ५४२-४५ प्रन्योल्लेख/ ५८१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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