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________________ (५७६), निकाचित-अनिकाचित (५७६-७७), कर्मस्थिति (५७७) और पश्चिमस्कन्ध (५७७७६) इन पूर्वोक्त अनुयोगद्वारों का निर्देश करते हुए पृथक्-पृथक् कुछेक पदों आदि के उल्लेख के साथ कुछ विवेचन किया गया है, जो अधिकांश पुनरुक्त है। ___अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार के प्रसंग में प्रथमतः यह सूचना है कि यहां महावाचक क्षमाश्रमण (सम्भवतः नागहस्ती) सत्कर्म का मार्गण करते हैं। आगे उत्तरप्रकृतिसत्कर्म से दण्डक किया जाता है, ऐसा. निर्देश कर उत्तरप्रकृतियों के आश्रय से प्रकृतिसत्कर्म (पृ० ५७६-८०), केवल मोहनीय के आधार से प्रकृतिस्थानसत्कर्म (५८०-८१), स्थितिसत्कर्म (५८१), अनुभागसत्कर्म (५८१-८२) और प्रदेशाग्र (५८३-६३) को आधार बनाकर पृथक्-पृथक् प्रायः ओघ से नरकादि चारों गतियों में तथा एकेन्द्रियों में अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गयी है। इस प्रकार अन्तिम अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार समाप्त हुआ है। ५६० / षट्खण्डागम-परिशीलन For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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