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________________ नोआगम भावलेश्या के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि कर्मागम की कारणभूत जो मिथ्यात्व, असंयम और कषाय से अनुरंजित योग की प्रवृत्ति होती है उसका नाम नोआगमभावलेश्या है । अभिप्राय यह है कि मिथ्यात्व, असंयम और कषाय के आश्रय से जो संस्कार उत्पन्न होता है उसे नोआगमभावलेश्या जानना चाहिए। यहाँ नैगमनय की अपेक्षा नोआगमद्रव्यलेश्या और नोआगमभावलेश्या ये दो प्रसंग प्राप्त हैं। द्रव्यलेश्या का वर्णन करते हुए आगे कहा गया है कि जीव के द्वारा अप्रतिगृहीत पुद्गलस्कन्धों में जो कृष्ण, नील आदि वर्ण होते हैं, यही द्रव्यलेश्या है जो कृष्णादि के भेद से छह प्रकार की है। उसके ये छह भेद द्रव्याथिकनय की विवक्षा से निर्दिष्ट हैं, पर्यायाथिकनय की विवक्षा से वह असंख्यात लोकप्रमाण भेदों वाली है। तत्पश्चात्, शरीर के आश्रित रहनेवाली इन लेश्याओं में कौन-कौन लेश्याएँ किन जीवों के रहती हैं, इसका स्पष्टीकरण है। जैसे तिर्यंचों के शरीर छहों लेश्याओं से युक्त होते हैं--उनमें कितने ही शरीर कृष्णलेश्या वाले, कितने ही नीललेश्यावाले, कितने ही कापोतलेश्या वाले, कितने ही तेजलेश्या वाले, कितने ही पद्मलेश्या वाले और कितने ही शुक्ललेश्या वाले होते हैं। देवों के शरीर मूलनिवर्तन की अपेक्षा तेज, पद्म और शुक्ल इन तीन लेश्यावाले तथा उत्तरनिवर्तना की अपेक्षा वे छहों लेश्याओं वाले होते हैं, इत्यादि। ___औदारिक आदि पांच शरीरों में कौन किन लेश्याओं से युक्त होते हैं, इसकी चर्चा में कहा है कि औदारिक शरीर छहों लेश्याओं से युक्त होते हैं। वैक्रियिक शरीर मूलनिवर्तना की अपेक्षा कृष्ण, पीत, पद्म अथवा शुक्ललेश्या से युक्त होते हैं। तेजस शरीर पीतलेश्या से और कार्मणशरीर शुक्ललेश्या से युक्त होता है। शरीरगत पुद्गलों में अनेक वर्ण रहते हैं, फिर भी अमुक शरीर का यह वर्ण होता है, यह जो यहां कहा गया है वह शरीरगत उन अनेक वर्गों में प्रमुख वर्ण के आश्रय से कहा गया है । जैसे-जिस शरीर में प्रमुखता से कृष्ण वर्ण पाया जाता है उसे कृष्णलेश्यावाला, इत्यादि । ___ आगे विवक्षित लेश्यावाले द्रव्य में जो अन्य अनेक गुण होते हैं उनका अल्पबहुत्व दिखलाया है । जैसे-कृष्णलेश्यायुक्त द्रव्य में शुक्ल गुण स्तोक, हारिद्र गुण अनन्तगुणे और कृष्ण गुण अनन्तगुणे होते हैं । नीललेश्यादि युक्त द्रव्यों के अन्य गुणों के अल्पबहुत्व को भी यहाँ प्रकट किया गया है। विशेषता यह रही है कि किसी विवक्षित लेश्या से युक्त द्रव्य के अन्य गुणों के अल्पबहुत्व में अन्य विकल्प भी रहे हैं। जैसे कापोतलेश्या के विषय में उस अल्पबहुत्व को तीन प्रकार से प्रकट किया गया है-(१) शुक्ल गुण स्तोक, हारिद्र गुण अनन्तगुणे, कालक गुण अनन्तगुणे, लोहित अनन्तगुणे और नील अनन्तगुणे। (२) शुक्ल स्तोक, कालक अनन्तगुणे, हारिद्र अनन्तगुणे, नील अनन्तगुणे और लोहित अनन्तगुणे। (३) कालक स्तोक, शुक्ल अनन्तगुणे, नील अनन्तगुणे, हारिद्र अनन्तगुणे और लोहित अनन्तगुणे। द्रव्यलेश्या की प्ररूपणा के पश्चात् भावलेश्या के प्रसंग में उसके स्वरूप का निर्देश करते हुए कहा है कि मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग के आश्रय से जीव के जो संस्कार उत्पन्न होता है उसे भावलेश्या कहते हैं । उसमें तीव्र संस्कार को कापोतलेश्या, तीव्रतर संस्कार को नीललेश्या, तीव्रतम संस्कार को कृष्णलेश्या, मन्द संस्कार को तेजलेश्या या पीतलेश्या, मन्दतर संस्कार को पद्मलेश्या और मन्दतम संस्कार को शुक्ललेश्या कहा जाता है। ५५० / पदसण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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