SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 598
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मात्र कहा है। (४) विपरिणाम उपक्रम यह भी प्रकृति-स्थिति आदि के भेद से चार प्रकार का है। इनमें प्रकृति विपरिणामना मूल और उत्तर प्रकृति के भेद से दो प्रकार की है। मूल प्रकृतिविपरिणामना भी देशविपरिणामना और सर्वविपरिणामना के भेद से दो प्रकार की है। जिन प्रकृतियों का एकदेश अधःस्थितिगलना के द्वारा निर्जीर्ण होता है, वह देश विपरिणामना है। जो प्रकृति सर्वनिर्जरा से निर्जीर्ण होती है उसे सर्वविपरिणामना कहा जाता है। आगे यहाँ यह सूचना कर दी गयी है कि इस अर्थपद से मूलप्रकृतिविपरिणामना के विषय में स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर, संनिकर्ष और विपरिणामना अल्पबहुत्व को ले जाना चाहिए। भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धि यहां भी नहीं है। उत्तरप्रकृतिविपरिणामना का निरूपण करते हुए कहा गया है कि जो प्रकृति देश निर्जरा अथवा सर्वनिर्जरा के द्वारा निर्जीर्ण होती है अथवा जो देशसंक्रम या सर्वसंक्रम के द्वारा संक्रम को प्राप्त करायी जाती है, वह उत्तरप्रकृतिविपरिणामना है। यहां भी आगे इस अर्थपद से स्वामित्व आदि की प्ररूपणा करने की सूचना कर दी गयी है। साथ ही प्रकृति स्थानविपरिणामना की प्ररूपणा करने की ओर संकेत भी कर दिया गया है। आगे क्रमप्राप्त स्थितिविपरिणामना के प्रसंग में उसका स्वरूप निर्देश करते हुए कहा गया है कि जो स्थिति अपकर्षण व उत्कर्षण को प्राप्त करायी जाती है अथवा अन्य प्रकृति में संक्रान्त करायी जाती है, इसका नाम स्थितिविपरिणामना है। आगे कहा गया है कि इस अर्थपद से स्थितिविपरिणामना की प्ररूपणा स्थितिसंक्रम के समान करनी चाहिए, क्योंकि दोनों की प्ररूपणा की पद्धति समान है। अनुभागविपरिणामना के प्रसंग में उसका स्वरूप निर्देश करते हुए कहा है कि अपकर्षण को प्राप्त, उत्कर्षण को भी प्राप्त और अन्य प्रकृति में संक्रान्त कराया गया भी अनुभाग विपरिणामित होता है । यहाँ भी यह सूचना कर दी गयी कि इस अर्थपद से प्रकृत अनुभागविपरिणामना की प्ररूपणा उसी प्रकार करनी चाहिए, जिस प्रकार से अनुभागसंक्रम की प्ररू. पणा की गयी है। यही स्थिति प्रदेशविपरिणामना की भी रही है। निर्जरा को तथा अन्य प्रकृति में संक्रम को प्राप्त हुए प्रदेशाग्र का नाम प्रदेश विपरिणामना है। इस अर्थपद से प्रकृत प्रदेश विपरिणामना को प्रदेशसंक्रम के समान जानना चाहिए। विशेष इतना है कि उदय से निर्जरा को प्राप्त होने वाला प्रदेशाग्र प्रदेशसंक्रम की अपेक्षा विपरिणामना में अधिक होता है। इस प्रकार उपक्रम के बन्धनोपक्रम आदि चारों भेदों की प्ररूपणा के समाप्त हो जाने पर उपक्रम अनुयोगद्वार समाप्त हुआ है । १०. उदय अनुयोगद्वार यहाँ सर्वप्रथम नामादि उदयों में कौन-सा उदय प्रसंगप्राप्त है, इस प्रश्न को स्पष्ट करते ५४४ / षटखण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy