SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 584
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीवों की विशेषता को प्रकट किया है । पश्चात् सूत्र १२६ में प्रस्तुत शरीरिशरीरप्ररूपणा में ज्ञातव्यस्वरूप से सत्प्ररूपणादि आठ अनुयोगद्वारों का निर्देश किया है। उनमें से यहां प्रथम सत्प्ररूपणा और अन्तिम अल्पबहुत्व इन दो अनुयोगद्वारों की ही प्ररूपणा की है, शेष द्रव्यप्रमाणानुगमादि छह अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा उन्होंने नहीं की। इससे यहां मूल ग्रन्थ में सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार के समाप्त हो जाने पर धवलाकार ने 'यह सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार चूंकि शेष द्रव्यप्रमाणादि छह अनुयोगद्वारों से सम्बद्ध है, इसलिए यही उनकी प्ररूपणा की जाती है' इस सूचना के साथ आगे यथाक्रम से उनकी प्ररूपणा की है। गया ओघ की अपेक्षा से दो शरीर वाले और तीन शरीर वाले जीव द्रव्यप्रमाण से अनन्त हैं। चार शरीरवाले द्रव्यप्रमाण से प्रतर के असंख्यातवें भाग मात्र असंख्यात जगश्रेणि प्रमाण असंख्यात हैं। आदेश की अपेक्षा नरकगति में वर्तमान नारकियों में दो शरीरवाले व तीन शरीर वाले नारकीयों को द्रव्यप्रमाण से प्रतर के असंख्यातवें भाग कहा गया है। इस प्रकार शेष तियंच आदि तीन गतियों और इन्द्रिय आदि अन्य मार्गणाओं में भी प्रस्तुत द्रव्यप्रमाण की धवला में प्ररूपणा है। तत्पश्चात वहां क्रम से क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम, कालानुगम, अन्तरानुगम और भावानुगम इन अनुयोगद्वारों का भी निर्देश है (पु० १४, पृ० २४८-३०१)। आहारक-शरीर शरीरप्ररूपणा के अन्तर्गत छह अनुयोगद्वारों में प्रथम 'नामनिरुक्ति' अनुयोगद्वार है। इसमें औदारिक आदि पांच शरीरों के नामों की निरुक्तिपूर्वक सार्थकता का प्रकाशन है। ___ इस प्रसंग में यहाँ धवला में आहारक शरीर की विशेषता को प्रकट करते हुए कहा गया है कि असंयम की प्रचुरता, आज्ञाकनिष्ठता और अपने क्षेत्र में केवली का अभाव, इन तीन कारणों के होने पर साधु आहारक शरीर को प्राप्त होता है। इनमें से प्रत्येक को वहां इस प्रकार स्पष्ट किया गया है असंयमप्रचुरता-जब जल, स्थल और आकाश उन सूक्ष्म जीवों से, जिनका परिहार करना अशक्य होता है, व्याप्त हो जाता है तब असंयम की प्रचुरता होती है। उसके परिहार के लिए साधु आहारकशरीर को प्राप्त होते हैं । आहारवर्गणा के स्कन्धों से निर्मित वह आहारक शरीर हंस के समान धवल, प्रतिघात से रहित और एक हाथ प्रमाण उत्सेध से युक्त होता है। ___आज्ञाकनिष्ठता-आज्ञा, सिद्धान्त और आगम ये समानार्थक शब्द हैं। अपने क्षेत्र में आज्ञा की अल्पता का नाम आज्ञाकनिष्ठता है। केवली का अभाव-जिन द्रव्य व पर्यायों का निर्णय आगम को छोड़कर अन्य किसी प्रमाण से नहीं किया जा सकता है, उनके विषय में सन्देह के उत्पन्न होने पर उसे दूर करने के लिए 'मैं अन्य क्षेत्र में स्थित श्रुतकेवली अथवा केवली के पादमूल में जाता हूँ', इस प्रकार विचार करके साधु आहारक शरीर से परिणत होता है । उसके प्रभाव से वह पर्वत, नदी व समुद्र आदि के मध्य से जाकर विनयपूर्वक उनसे उस सन्देहापन्न तत्त्व के विषय में पूछता है। तथा सन्देह से रहित हो वह वापस आ जाता है। इसके अतिरिक्त साधु अन्य क्षेत्र में किन्हीं महामुनियों के केवलज्ञान के उत्पन्न होने अथवा मुक्ति के प्राप्त होने पर तथा तीर्थंकरों के दीक्षाकल्याणक ५३० / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy