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________________ 'तत्त्वार्थवार्तिक' में तत्त्वार्थसूत्र में निर्दिष्ट नौ प्रकार के प्रायश्चित्त के स्वरूप आदि को प्रकट करते हुए अन्त में वहाँ किस प्रकार के अपराध में कौन-सा प्रायश्चित्त अनुष्ठेय होता है, इसका विवेचन है । पर यह प्रसंग वहाँ अशुद्ध बहुत हुआ है, जिससे यथार्थता का सरलता से बोध नहीं हो पाता है । इस प्रसंग में वहाँ अनुपस्थापन और पारंवि[चि ]क प्रायश्चित्तों का निर्देश करते हुए कहा है कि अपकृष्ट्य आचार्य के मूल में प्रायश्चित्त ग्रहण करने का नाम अनुपस्थापन प्रायश्चित्त है और एक आचार्य के पास से तीसरे आचार्य तक अन्य आचार्यों के पास भेजना यह पारंवि[च]क प्रायश्चित्त है । यहाँ यह स्मरणीय है कि चारित्रसार और आचारसार के अनुसार इस पारंचिक प्रायश्चित्त में अपराधी को एक से दूसरे व दूसरे से तीसरे आदि के क्रम से सातवें आचार्य के पास तक भेजा जाता है । 'तत्त्वार्थवार्तिक' में अन्त में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि यह प्रायश्चित्त नौ प्रकार का है । किन्तु देश, काल, शक्ति और संयम आदि के अविरोधपूर्वक अपराध के अनुसार रोगचिकित्सा के समान दोषों को दूर करना चाहिए। कारण यह कि जीव के परिणाम असंख्यात लोक प्रमाण हैं तथा अपराध भी उतने ही हैं, उनके लिए उतने भेद रूप प्रायश्चित्त सम्भव नहीं हैं । व्यवहार नय की अपेक्षा समुदित रूप में प्रायश्चित्त का विधान किया गया है ।' ध्यान विषयक चार अधिकार आगे इसी तपःकर्म के प्रसंग में अभ्यन्तर तप के पाँचवें भेदभूत ध्यान की प्ररूपणा करते हुए धवला में तत्त्वार्थ सूत्र ( ६ - २६ ) के अनुसार यह कहा गया है कि उत्तम संहननवाला जीव एक विषय की ओर जो चिन्ता को रोकता है उसे ध्यान कहते हैं । वहाँ एक गाथा' उद्धृत की गई है, जिसका अभिप्राय है स्थिर जो अध्यवसान - एकाग्रता का आलम्बन लेनेवाला मन - है उसका नाम ध्यान है । चल या अस्थिर अध्यवसान को चित्त कहा जाता है । वह सामान्य से तीन प्रकार का हैभावना, अनुप्रेक्षा और चिन्ता । भावना का अर्थ ध्यानाभ्यास की क्रिया है । स्मृतिरूप ध्यान से भ्रष्ट होने पर जो चित्त की चेष्टा होती है उसका नाम अनुप्रेक्षा है । इन दोनों प्रकारों से रहित जो मन की चेष्टा होती है उसे चिन्ता कहते हैं । 3 १. देखिए, त० वा० ६,२२,१०; विशेष जानकारी के लिए 'जैन लक्षणावली' भाग १ की प्रस्तावना पृ० ७६-७८ में अनुपस्थापन शब्द से सम्बद्ध सन्दर्भ द्रष्टव्य है । इसी 'जैन लक्षणावली' के भाग २ में 'पारंचिक' शब्द के अन्तर्गत सन्दर्भ भी देखने योग्य हैं । जं थिरमज्झवसाणं तं झाणं जं चलं तयं चित्तं । हो भावणा सा अणुपेहा वा अहव चिता ॥ - ५० १३, पृ०६४ यह गाथा ध्यानशतक में गाथांक २ के रूप में उपलब्ध होती है । इसी का संस्कृत छायानुवाद जैसा यह श्लोक आदिपुराण में इस प्रकार उपलब्ध होता हैस्थिर मध्यवसानं यत् तत् ध्यानं पञ्चलाचलम् । सानुप्रेक्षाथवा चिन्ता भावना चित्तमेव वा ।। २१-६ ३. ध्यानशतक गा० २ की हरिभद्र-वृत्ति द्रष्टव्य है । Jain Education International षट्खण्डागम पर टीकाएँ / ५११ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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