SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 563
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बन्ध का अभाव रहता है। इस प्रकार आनेवाले कर्मप्रदेशों की अपेक्षा उसे बादर कहा गया है। वह मद है, क्योंकि उसके स्कन्ध, कर्कश आदि गुणों से रहित होकर मदुस्पर्श गुण से सहित होते हुए ही बन्ध को प्राप्त होते हैं। वह बहुत है, क्योंकि कषाय सहित जीवों के वेदनीयकर्म के समय प्रबद्ध से ईर्यापथ कर्म का समयप्रबद्ध प्रदेशों की अपेक्षा संख्यातगुणा होता है। __इसी क्रम से आगे धवला में उसे रूक्ष, शुक्ल, मन्द, महाव्यय, साताभ्यधिक, गृहीत-अगृहीत, बद्ध-अबद्ध, स्पृष्ट-अस्पृष्ट, उदित-अनुदित, वेदित-अवेदित, निर्जरित-अनिर्जरित और उदीरितअनूदीरित विशेषणों से विशिष्ट दिखलाया गया है (पु० १३, पृ० ४७-५४)। तपःकर्म के प्रसंग में उसके लक्षण का निर्देश करते हुए धवला में कहा है कि रत्नत्रय को प्रकट करने के लिए जो इच्छा का निरोध किया जाता है उसका नाम तप है । वह बाह्य और अभ्यन्तर के भेद से दो प्रकार का है। उनमें बाह्य तप अनेषण (अनशन), अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, कायक्लेश और विविक्तशय्यासन के भेद से छह प्रकार का है। अभ्यन्तर तप भी प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, ध्यान और कायोत्सर्ग के भेद से छह प्रकार का है। इस बारह प्रकार के तप को धवला में यथाक्रम से विस्तारपूर्वक स्पष्ट किया गया है (पु० १३, पृ० ५४-८८) । । प्रायश्चित्तविषयक विचार के प्रसंग में यहाँ उसके ये दस भेद निर्दिष्ट किये गये हैं—आलोचन, प्रतिक्रमण, उभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, परिहार और श्रद्धान । प्रायश्चित्त के ये दस भेद मूलाचार में उपलब्ध होते हैं। सम्भवत: उसी का अनुसरण यहाँ किया गया है। यथा आलोयण पडिकमणं उभय विवेगो तहा विउस्सग्गो। तव छेदो मूलं चिय परिहारो चेव सद्दहणा' ।।-मूला० ५/१६५ धवला में इनका स्वरूप बतलाते हुए, किस प्रकार के अपराध के होने पर कौन-सा प्रायश्चित्त विधेय होता है, इसे भी यथाप्रसंग स्पष्ट किया गया है। 'तत्त्वार्थसूत्र' (६-२२) में प्रायश्चित्त के ये नौ ही भेद निर्दिष्ट किये गये हैं--आलोचन, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार और उपस्थापना। इनमें प्रारम्भ के सात भेद दोनों ग्रन्थों में सर्वथा समान हैं। पर 'मूलाचार' और 'धवला' में जहाँ उनमें मूल, परिहार और श्रद्धान इन तीन अन्य भेदों को सम्मिलित करके उसके दस भेद निर्दिष्ट किये गये हैं जबकि तत्त्वार्थसूत्र में परिहार और उपस्थापना इन दो भेदों को सम्मिलित करके उनके नौ ही भेद निदिष्ट हैं। इनमें परिहार' भी दोनों ग्रन्थों में समान रूप से उपलब्ध होता है, मात्र क्रमव्यत्यय हुआ है। तत्त्वार्थसूत्र' की टीका 'सर्वार्थसिद्धि' व 'तत्त्वार्थवार्तिक' में जो उनके स्वरूप का निर्देश है उसमें 'धवला' में कहीं पर साधारण स्वरूपभेद भी हुआ है। 'तत्त्वार्थसूत्र' में 'मूल' प्रायश्चित्त का उल्लेख नहीं है । उसके स्वरूप का निर्देश करते हुए १. यह गाथा धवला में (पु० १३, पृ० ६०) 'एत्थ गाहा' इस निर्देश के साथ उद्धृत भी की गयी है। षटखण्डागम पर टीकाए। ५०४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy