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________________ देश इन स्पर्श-भेदों में प्रविष्ट होता है। इस कारण इस भव्यस्पर्श को भी उनकी विषयता से अलग रखा गया है । दूसरे, स्थापनास्पर्श के अन्तर्गत होने से भी संग्रहनय उस भव्यस्पर्श को विषय नहीं करता है, क्योंकि 'वह यह है' इस प्रकार के अध्यारोप के बिना वर्तमान में यन्त्र आदिकों में स्पर्श घटित नहीं होता है । आगे दूसरे गाथासूत्र में जो यह कहा है कि ऋजुसूत्रनय एकक्षेत्रस्पर्श, अनन्तरस्पर्श, बन्धस्पर्श और भव्य स्पर्श को विषय नहीं करते तथा शब्दनय नामस्पर्श, स्पर्शस्पर्श और भावस्पर्श को स्वीकार नहीं करते (५,३, ८); इसे भी धवला में स्पष्ट किया गया है ( पु० १३ पृ ४०८ ) | द्रव्यस्पर्श के स्वरूप को प्रकट करते हुए सूत्रकार ने कहा है कि जो एक द्रव्य दूसरे द्रव्य के साथ स्पर्श करता है, इसका नाम द्रव्यस्पर्श है । (सूत्र ५, ३, ११-१२) इस सूत्र के अभिप्राय को स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने कहा है कि परमाणुपुद्गल शेष पुद्गलद्रव्य से स्पर्श करता है, क्योंकि परमाणुपुद्गल की शेष पुद्गलों के साथ पुद्गलद्रव्यस्वरूप से एकता पायी जाती है। एक पुद्गलद्रव्य का शेष पुद्गलद्रव्यों के साथ जो संयोग अथवा समवाय होता है, इसका नाम द्रव्यस्पर्श है । अथवा, जीवद्रव्य और पुद्गल का जो एक स्वरूप से सम्बन्ध होता है उसे द्रव्यस्पर्श जानना चाहिए। यहाँ धवला में यह शंका उत्पन्न हुई है कि जीवद्रव्य तो अमूर्त है और पुद्गलद्रव्य मूर्त है, ऐसी अवस्था में इन अमूर्त व मूर्त दो द्रव्यों का एक स्वरूप से सम्बन्ध कैसे हो सकता है । इसके समाधान में वहाँ यह स्पष्ट किया गया है कि संसार-अवस्था में चूँकि जीवों के अमूर्तरूपता नहीं है, इसलिए उसमें कुछ विरोध नहीं है । इस पर वहाँ यह शंका उठी है कि यदि संसार-अवस्था में जीव मूर्त रहता है तो वह मुक्त होने पर अमूर्तरूपता को कैसे प्राप्त होता है। उत्तर में कहा गया है कि मूर्तता का कारण कर्म है, उसका अभाव हो जाने पर उसके आश्रय से रहनेवाली मूर्तता का भी अभाव हो जाता है । इस प्रकार सिद्ध जीवों के अमूर्तरूपता स्वयंसिद्ध है । यहीं पर आगे, जीव- पुद्गलों के सम्बन्ध की सादिता - अनादिता का विचार करते हुए उस प्रसंग में यह पूछने पर कि द्रव्य की 'स्पर्श' संज्ञा कैसे सम्भव है, धवलाकार ने कहा है कि 'स्पृश्यते अनेन, स्पृशतीति वा स्पर्शशब्दसिद्धेर्द्रव्यस्य स्पर्शत्वोपपत्तेः' अर्थात् 'जिसके द्वारा स्पर्श किया जाता है अथवा जो स्पर्श करता है' इस निरुक्ति के अनुसार 'स्पर्श' शब्द के सिद्ध होने से द्रव्य के स्पर्शरूपता बन जाती है। छहों द्रव्य सत्त्व, प्रमेयत्व आदि की अपेक्षा परस्पर समान हैं, इसलिए नैगम नय की अपेक्षा उन छहों द्रव्यों के द्रव्यस्पर्श है । धवलाकार ने यहाँ एक, दो, तीन आदि द्रव्यों के संयोग से सम्भव भंगों के प्रमाण को भी स्पष्ट किया है । एकसंयोगी भंग जैसे - ( १ ) एक जीवद्रव्य दूसरे जीवद्रव्य का स्पर्श करता है, क्योंकि अनन्तानन्त निगोदजीवों का एक निगोदशरीर में परस्पर समवेत होकर अवस्थान पाया जाता है, अथवा जीवस्वरूप से उनमें एकता देखी जाती है । (२) एक पुद्गलद्रव्य दूसरे पुद्गलद्रव्य के साथ स्पर्श करता है, क्योंकि परस्पर में समवाय को प्राप्त हुए अनन्त पुद्गल परमाणुओं का अवस्थान देखा जाता है, अथवा पुद्गल स्वरूप से उनमें एकता देखी जाती है। (३) धर्मद्रव्य धर्मद्रव्य के साथ स्पर्श करता है, क्योंकि असंग्राही नैगमनय का आश्रय करके 'द्रव्य' नाम को प्राप्त लोकाकाश प्रमाण धर्मद्रव्य के असंख्यात प्रदेशों का परस्पर में स्पर्श देखा जाता है । ५०६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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