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________________ बतलाकर उसे स्पष्ट करते हुए कहता है कि एक देव अथवा नारकी सम्यग्दृष्टि पूर्वकोटि बायुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। गर्भ से लेकर आठ वर्ष व अन्तर्मुहर्त में उसके तीर्थकर नामकर्म बांधने में आया। यहां से लेकर आगे वह उसे शेष पूर्वकोटि से अधिक तेतीस सागरोपमकाल तक बांधता रहा है। कारण यह है कि तीर्थकर कर्म के बन्धक संयत के तेतीस सागरोपम आयुवाले देवों में उत्पन्न होने पर तेतीस सागरोपम काल तक उसका निरन्तर बन्ध पाया जाता है। फिर वहां से च्युत होकर वह पूर्वकोटि आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न होने पर आयु में वर्षपृथक्त्व शेष रह जाने तक उसे निरन्तर बांधता है । यहाँ उसके अपूर्वकरण संयत होने पर उस अपूर्वकरण के सात भागों में से छठे भाग के अन्तिम समय तक बांधता है । तत्पश्चात् सातवें भाग के प्रथम समय में उसका बन्ध व्युच्छिन्न हो जाता है। वर्षपृथक्त्व को कम इसलिए किया गया है कि तीर्थकर का विहार जघन्य रूप में वर्षपृथक्त्व काल तक पाया जाता है । इस प्रकार आदि के तथा अन्त के दो वर्षपृथक्त्वों से कम दो पूर्वकोटियों से अधिक तेतीस सागरोपम तीर्थकर कर्म की समयप्रबद्धार्थता होती है। इस प्रकार किन्हीं आचार्यों ने उस आहारकद्विक और तीर्थकर इन नामकर्मों की समयप्रबद्धार्थता के विषय में अपना अभिमत प्रकट किया है। उसका निराकरण करते हुए धवलाकार ने कहा है कि उनका वह अभिमत घटित नहीं होता है, क्योंकि आहारकद्विक की संख्यात वर्ष मात्र और तीर्थकर कर्म की साधिक तेतीस सागरोपममात्र समयप्रबद्धार्थता होती है, इसका प्रतिपादक कोई भी सूत्र नहीं है । और सूत्र के प्रतिकूल व्याख्यान होता नहीं है, वह व्याख्यानाभास ही होता है । युक्ति से भी उसमें बाधा नहीं पहुंचायी जा सकती है, क्योंकि जो समस्त बाधाओं से रहित होता है उसे सूत्र माना गया है। ___ इस पर यह पूछे जाने पर कि तो फिर इन तीन कर्मों की समयप्रबद्धार्थता कितनी है, धवलाकार ने कहा है कि उन तीनों की समयप्रबद्धार्थता बीस कोड़ाकोडि सागरोपम प्रमाण है। __ यहां यह शंका की गयी है कि तीनों कर्मों का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अन्तःकोड़ाकोड़ि प्रमाण ही होता है। और उतने काल भी उनका बन्ध सम्भव नहीं है, क्योंकि उनका बन्ध क्रम से संख्यात वर्ष और साधिक तेतीस सागरोपम मात्र ही पाया जाता है। जिन कर्मों की अन्त:कोडाडि मात्र भी समयप्रबद्धार्थता सम्भव नहीं है, उनकी बीस कोड़ाकोड़ि सागरोपममात्र समयप्रबदार्थता कैसे सम्भव है। इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि यह कुछ दोष नहीं है, क्योंकि इन तीनों को के बन्ध के चाल रहने पर बीस कोड़ाकोडि सागरोपमों में संचित नामकों के समयप्रबदों के इन तीनों कर्मों में संक्रान्त होने पर उनकी बीस कोड़ाकोड़ि सागरोपम प्रमाण समयप्रद्धार्थता पायी जाती है। इत्यादि प्रकार से आगे भी उनके विषय में कुछ ऊहापोह किया गया है।' १५. वेदनाभागाभागविधान इस अनुयोगद्वार में भी प्रकृत्यर्थता, समयप्रबद्धार्थता और क्षेत्रप्रत्यास वे ही तीन अनुयोगद्वार हैं। यहाँ इन तीनों अनुयोगद्वारों के आश्रय से विवक्षित कर्मप्रकृतियां अन्य सब कमप्रकृतियों के कितनेवें भागप्रमाण हैं, इसे स्पष्ट किया गया है। आवश्यकतानुसार यथाप्रसंग १. इस सब के लिए धवला पु० १२, पृ० ४६२-६६ द्रष्टव्य हैं । ५०४ / पदसण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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