SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 555
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इसी पद्धति से सूत्रकार द्वारा यहाँ अन्य कर्मों के विषय में भी प्रकृत स्वस्थान- परस्थान संनिकर्ष का विचार किया गया है, जिसका स्पष्टीकरण धवलाकार ने यथाप्रसंग किया है । १४. वेदनापरिमाणविधान इस अधिकार का स्मरण करानेवाले प्रथम सूत्र की व्याख्या करते हुए धवला में शंकाकार ने कहा है कि इस अनुयोगद्वार से किसी प्रमेय का बोध नहीं होता है, इसलिए इसे प्रारम्भ नहीं करना चाहिए। उससे किसी प्रमेय का बोध क्यों नहीं होता है, इसे स्पष्ट करते हुए शंकाकार ने कहा है कि यह अनुयोगद्वार प्रकृतियों के परिणाम का प्ररूपक तो हो नहीं सकता, क्योंकि ज्ञानावरणीयादि आठ ही कर्मप्रकृतियाँ हैं, यह पहले बतला चुके हैं । स्थितिवेदना के प्रमाण की भी प्ररूपणा उसके द्वारा नहीं की जाती है, क्योंकि पीछे कालविधान में विस्तारपूर्वक उसकी विधिवत् प्ररूपणा की जा चुकी है। वह भाववेदना के प्रमाण की भी प्ररूपणा नहीं करता है, क्योंकि उसकी प्ररूपणा भावविधान में की जा चुकी है । और जिस अर्थ की पूर्व में प्ररूपणा की जा चुकी है उसकी पुनः प्ररूपणा का कुछ फल नहीं है । वह प्रदेश प्रमाण का भी प्ररूपक नहीं है, क्योंकि द्रव्यविधान के प्रसंग में उसकी प्ररूपणा हो चुकी है । क्षेत्रवेदना के प्रमाण की प्ररूपणा उसके द्वारा की जा रहो हो, यह भी सम्भव नहीं है; क्योंकि वेदनाक्षेत्र विधान में उसे दे चुके हैं । इस प्रकार जब इस अनुयोगद्वार का कुछ प्रतिपाद्य विषय शेष है ही नहीं तो उसका प्रारम्भ करना निरर्थक है । इसका समाधान करते हुए धवलाकार ने कहा है कि पूर्व में द्रव्याथिक नय की अपेक्षा माठ ही प्रकृतियाँ होती हैं यह कहा गया है। उन आठों प्रकृतियों के क्षेत्र, काल, भाव आदि के प्रमाण की प्ररूपणा पूर्व में नहीं की गयी है इसलिए इस समय पर्यायार्थिक नय का आश्रय लेकर प्रकृतियों के प्रमाण की प्ररूपणा करने के लिए यह अनुयोगद्वार आया है । इस अधिकार में ये तीन अनुयोगद्वार हैं- प्रकृत्यर्थता, समयप्रबद्धार्थता और क्षेत्रप्रत्याश्रय या क्षेत्रप्रत्यास ।' इनमें से प्रकृत्यर्थता अधिकार में प्रकृति के भेद से कर्मभेदों की प्ररूपणा है । प्रकृति, शील और स्वभाव ये समानार्थक शब्द हैं। दूसरे अनुयोगद्वार में समयप्रबद्धों के भेद से प्रकृतियों के भेदों को प्रकट किया गया है। तीसरे अनुयोगद्वार में क्षेत्र के भेद से प्रकृतियों के भेदों की प्ररूपणा की गयी है, यथा प्रकृत्यर्थता के अनुसार ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म की कितनी प्रकृतियाँ हैं, इसे स्पष्ट करते हुए सूत्रकार ने उन्हें असंख्यात लोकप्रमाण कहा है (सूत्र ४,२,१४,३-४) । इसके स्पष्टीकरण में धवलाकार ने कहा है कि इन दोनों कर्मों की प्रकृतियाँ या शक्तियां असंख्यात लोकप्रमाण हैं । कारण यह कि उनके द्वारा आच्छादित किये जानेवाले ज्ञान और दर्शन असंख्यात लोकप्रमाण पाये जाते हैं । धवला में आगे कहा है कि सूक्ष्म निगोदजीव का जो जघन्य लब्ध्यक्षरज्ञान है वह निरावरण है, क्योंकि अक्षर का अनन्त भाग सदा प्रकट रहता १. क्षेत्रं प्रत्याश्रयो यस्याः सा क्षेत्रप्रत्याश्रया अधिकृतिः । -- धवला पु० १२, पृ० ४७८; प्रत्यास्यते यस्मिन् इति प्रत्यासः, क्षेत्रं तत्प्रत्यासश्च क्षेत्रप्रत्यासः । जीवेण ओट्ठद्धखेत्तस्स खेत्तपच्चासे त्ति सण्णा । - धवला पु० १२, पृ० ४६७ Jain Education International बसण्डागम पर टीकाएँ / ५०१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy