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________________ योग्य उन स्थितिविशेषों की 'आबाधाकाण्डक' यह संज्ञा होती है । आबाधा के द्विचरम समय को विवक्षित करके भी उक्त प्रकार से पत्योपम के असंख्यातवें भाग तक हीन स्थिति को बाँधता है । यह दूसरा आबाधाकाण्डक होता है । इसी प्रकार आबाधा के त्रिचरम समय की विवक्षा में पूर्व के समान तीसरा आबाधाकाण्डक होता है । यह क्रम उन सात कर्मों की जघन्य स्थिति के प्राप्त होने तक चलता है। आयुकर्म की अमुक स्थिति इस आबाधा में बँधती है, ऐसा कुछ नियम नहीं है । पूर्वकोटि के विभाग को आबाधा करके तेतीस सागरोपम प्रमाण स्थिति भी बँधती है । इस क्रम से उसी आबाधा से दो समय कम तीन समय कम आदि के रूप से क्षुद्रभवग्रहण तक आयु बँधती है । ऐसे ही आयुबन्धक के विकल्प दो समय कम तीन समय कम आदि उस पूर्वकोटि के त्रिभागरूप आबाधा में चलते हैं । इसलिए सूत्र में आयुकर्म का निषेध किया गया है ।' अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार के प्रसंग में भी धवलाकार ने अल्पबहुत्व से सूचित स्वस्थान और परस्थान अल्पबहुत्वों की प्ररूपणा की है । वेदनाकालविधान- धूलिका २ यहाँ स्थितिबन्धाध्यवसानप्ररूपणा के प्रसंग में इन तीन अनुयोगद्वारों का निर्देश किया गया है— जीवसमुदाहार, प्रकृतिसमुदाहार और स्थितिसमुदाहार (सूत्र ४, २, ६, १६५) । धवला में इस दूसरी चूलिका की सार्थकता को प्रकट करते हुए उक्त तीन अनुयोगद्वारों में से प्रथम जीवसमुदाहार में साता व असाता की एक-एक स्थिति में इतने जीव होते हैं और इतने नहीं होते हैं; इसका खुलासा है । अमुक प्रकृति के इतने स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान होते हैं और इतने नहीं होते, इसका परिज्ञान दूसरे प्रकृतिसमुदाहार में कराया गया है । विवक्षित स्थिति में इतने स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान होते हैं और इनने नहीं होते हैं, इसे स्पष्ट करना तीसरे स्थितिसमुदहार का प्रयोजन रहा है ( पु० ११, पृ० ३०८-११) । यहाँ मूल में जो विवक्षित विषय की प्ररूपणा की गयी है उसमें अधिक व्याख्येय प्रायः कुछ विषय नहीं रहा है, इसलिए धवला में प्रसंगप्राप्त सूत्रों के अभिप्राय को ही स्पष्ट किया गया है । कहीं पर देशामर्शक सूत्र से सूचित प्ररूपणा, प्रमाण, अवहार, भागाभाग और अल्पबहुत्व की भी संक्षेप में प्ररूपणा कर दी गयी है। ७. वेदनाभावविधान धवलाकार ने प्रारम्भ में भाव के ये चार भेद निर्दिष्ट किये हैं-नामभाव, स्थापनाभाव, द्रव्यभाव और भावभाव । इनमें नोआगमद्रव्यभाव के तीन भेदों के अन्तर्गत तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यभाव के इन दो भेदों का निर्देश है— कर्मद्रव्यभाव और नोकर्मद्रव्यभाव । इनमें कर्मद्रव्यभाव के स्वरूप का निर्देश करते हुए धवला में कहा गया है कि ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मों की जो अज्ञानादि को उत्पन्न करने की शक्ति है उसका नाम नोआगमकर्मद्रव्यभाव है । नोआगमनो कर्मद्रव्यभाव सचित्त और अचित्त के भेद से दो प्रकार का है 1 इनमें केवलज्ञान व केवल १. धवला पु० ११, पृ० २६७-६६ २. सूत्र १५१, पृ० ३२०-२१ व सूत्र २०३, पृ० ३२८-३२ ४१२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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