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________________ उनके अवलम्बनाकरण' द्वारा विनष्ट किया जानेवाला द्रव्य बहुत नहीं होता है । ३. वह दीर्घ बन्धककाल में ही उसे बाँधता है, यह जो उसकी तीसरी विशेषता प्रकट की गयी थी उसे स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि पूर्वकोटि के त्रिभाग को आबाधा करके आयु के बांधनेवालों की वह आयु जघन्य भी होती है और उत्कृष्ट भी होती है । उसमें जघन्य बन्धककाल का निषेध करने के लिए सूत्र में उत्कृष्ट बन्धककाल का निर्देश किया गया है । यह उत्कृष्ट बन्धककाल प्रथम अपकर्ष में ही होता है, अन्य द्वितीयादि अपकर्षों में नहीं । वह उत्कृष्ट बन्धककाल प्रथम अपकर्ष में ही होता है, इसकी पुष्टि में धवलाकार ने महाबन्ध में निर्दिष्ट आयुबन्धककाल के अल्पबहुत्व को उद्धृत किया है। बार, यह भी स्पष्ट किया गया है कि जो जीव सोपक्रम आयुवाले होते हैं वे अपनी-अपनी भुज्यमान आयु के दो त्रिभागों के बीत जाने पर असंक्षेपाद्धाकाल तक परभविक आयु के बन्ध योग्य होते हैं | आयु के बन्ध योग्य उस काल के भीतर कितने ही जीव आठ बार, कितने ही सात कितने ही छह बार कितने ही पांच बार, कितने ही चार बार कितने ही तीन बार, कितने ही दो बार, कितने ही एक बार आयु के बन्ध योग्य परिणामों से परिणत होते हैं । जिन जीवों ने भुज्यमान आयु के तृतीय त्रिभाग के प्रथम समय में परभविक आयु के बन्ध को प्रारम्भ किया है वे अन्तर्मुहूर्त में उस बन्ध को समाप्त कर भुज्यमान समस्त आयु में नौवें भाग (त्रिभाग के त्रिभाग) के शेष रह जाने पर फिर से भी उसके बन्धयोग्य होते हैं । इसी प्रकार से आगे समस्त आयु के सत्ताईसवें भाग के शेष रह जाने पर फिर से भी उसके बन्ध योग्य होते हैं । इसी से आगे आठवें अपकर्ष तक उत्तरोत्तर शेष त्रिभाग के तृतीय भाग के शेष रह जाने पर वे उसके पुनः-पुनः बन्ध योग्य होते हैं । भुज्यमान आयु के तृतीय भाग के शेष रह जाने पर परभविक आयु का बन्ध होता ही हो, ऐसा नियम नहीं है । किन्तु वे उस समय परभविक आयु के बन्ध योग्य होते हैं, यह अभिप्राय ग्रहण करना चाहिए। क्रम जो जीव निरुवक्रम आयुवाले होते हैं वे भुज्यमान आयु के छह मास शेष रह जाने पर आयु के बन्ध योग्य होते हैं । उसमें भी पूर्वोक्त क्रम के अनुसार आठ अपवर्षों को समझना चाहिए । ४. तत्प्रायोग्य संक्लेश से उसे क्यों बाँधता है, इसे स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि जिस प्रकार ज्ञानावरणादि अन्य कर्म उत्कृष्ट संक्लेश और उत्कृष्ट विशुद्धि से बँधते हैं उस प्रकार से आयु कर्म नहीं बँधता है; वह मध्यम संक्लेश से बँधता है, इसके ज्ञापनार्थं सूत्र में 'तत्प्रायोग्यसंक्लेश' को ग्रहण किया गया है। ५. ‘तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट योग' रूप पाँचवीं विशेषता को स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि दो समयों को छोड़कर उत्कृष्ट आयुबन्धक मात्र काल तक उत्कृष्ट योग से परिणमन सम्भव नहीं है, इसलिए जब तक शक्य होता है तब तक उत्कृष्ट ही योगस्थानों से परिणत होकर जो उसे बाँधता है वह उत्कृष्ट द्रव्य का स्वामी होता है, यह उसका अभिप्राय समझना चाहिए (पु० १०, पृ० २२५-३५) । इसी प्रकार सूत्रकार द्वारा आगे के कुछ सूत्रों (३७-४६) में भी उसकी जिन अनेक विशेषताओं का उल्लेख किया गया है उनका स्पष्टीकरण यथा प्रसंग धवला में कर दिया गया है। १. परभविआउवउवरिमट्ठिदिदव्वस्स ओकड्डणाए हेट्ठाणिवद गमवलंबणाकरणं णाम । - धवला पु० १०, पृ० ३३०-३१ बट्खण्डागम पर टीकाएँ / ४८३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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