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________________ गणे और सिद्धों से अनन्तगुणे हीन औदारिकशरीरस्कन्धों का आगमन और निर्जरा दोनों पाये जाते हैं । तियंच और मनुष्यों द्वारा उत्तर शरीर के उत्पन्न करने पर औदारिक शरीर की परिशातनकृति ही होती है, क्योंकि उस समय औदारिकशरीर के स्कन्धों का आना सम्भव नहीं । इसी प्रकार से आगे वैक्रियिक आदि अन्य शरीर के विषय में भी प्रस्तुत कृति का स्पष्टीकरण किया गया है। ___ अयोगिकेवली के योग का अभाव हो जाने से बन्ध नहीं होता, इसलिए उनके तैजस और कार्मण इन दो शरीरों की परिशातनकृति ही होती है । अन्यत्र उनकी संघातन-परिशातनकृति ही होती है, क्योंकि संसार में सर्वत्र उनका आगमन और निर्जरा दोनों साथ-साथ पाये जाते हैं (पु. ६, पृ० २२४-२६)।। 'सूत्र ७१ की व्याख्या मे धवलाकार ने प्रारम्भ में यह सूचना की है कि यह सूत्र देशामशंक है इसलिए उसके द्वारा सूचित पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व अधिकारों की यहाँ प्ररूपणा की जाती है, क्योंकि उनके बिना सत्प्ररूपणा सम्भव नहीं है। तदनुसार यहाँ तीनों अधिकारों का प्ररूपण है। यथा (१) पदमीमांसा-औदारिकशरीर की संघातन कृति उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य चारों प्रकार की होती है । इसी प्रकार से परिशातन और संघातन-परिशातन ये दोनों कृतियां भी चारों प्रकार की होती हैं। इसी प्रकार अन्य शरीरों के विषय में भी इन चार पदों के विचार करने की सूचना है (पु० ६, पृ० ३२६) । (२) स्वामित्व-इस अधिकार में औदारिक आदि शरीरों की वे उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य संघातन आदि कृतियाँ किनके सम्भव हैं इसका विचार है। (३) अल्पबहुत्व-अधिकार में उन्हीं औदारिक आदि शरीरों से सम्बन्धित उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य संघातन आदि कृतियों के अल्पबहुत्व का विचार है। आगे धवलाकार ने 'अब हम देशामर्शक सूत्र से सूचित अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा करेंगे' ऐसी प्रतिज्ञा कर ओघ और आदेश की अपेक्षा सत्प्ररूपणादि आठ अनुयोगद्वारों को यथाक्रम से प्ररूपणा की है (पु० ६, पृ० ३५४-४५०)। उत्तरकरणकृति मलकरणकृति की प्ररूपणा के बाद उत्तरकरणकृति के प्ररूपक सूत्र (७२) का व्याख्या में धवला में यह शंका उठायी गयी है कि सूत्रनिर्दिष्ट मृत्तिका आदि उत्तरकरण किस प्रकार से हैं। समाधान में कहा है कि पांच शरीर जीव से अपृथग्भूत हैं अथवा वे अन्य समस्त करणों के कारण हैं इसलिए उन्हें 'मूलकरण' संज्ञा प्राप्त हुई है । इसी से उन्हें उत्तरकरणकृति भी कहा गया है। असि, वासि, परशु, कुदारी, चक्र, दण्ड, वेम, नालिका, शलाका, मृत्तिका, सूत्र, उदक इत्यादि उपसंपदा के सान्निध्य से उन मूलकरणों के उत्तरकरण हैं । 'उपसंपदा' का अर्थ है 'द्रव्यमुपसंपद्यते आश्रीयते एभिरिति उपसंपदानि कार्याणि' अर्थात् जो द्रव्य का आश्रय लिया करते हैं उनका नाम उपसंपद है, इस निरुक्ति के अनुसार कार्य किया गया है (पृ० ४५०-५१)। १. सूत्ररचना की पद्धति, प्रसंग व पदविन्यास को देखते हुए यह सूत्र नहीं प्रतीत होता, सम्भवतः यह धवला का अंश रहा है। ४७५ / बदलण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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