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________________ वेदनाखण्ड को महाकर्मप्रकृतिप्राभृत, भूतबलि को गौतम और प्रकृत मंगल को निबद्ध मंगल भी सिद्ध कर दिया है। __इसी प्रसंग में यह भी पूछा गया है कि यह मंगल आगे के तीन खण्डों में से किस खण्ड का है। उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि यह तीनों खण्डों का मंगल है, क्योंकि वर्गणा और महाबन्ध इन दो खण्डों के प्रारम्भ में मंगल नहीं किया गया है, और भूतबलि भट्टारक मंगल के बिना ग्रन्थ को प्रारम्भ करते नहीं है; क्योंकि वैसा करने पर उनके अनाचार्यत्व का प्रसंग प्राप्त होता है। इस प्रसंग में अन्य जो भी शंकाएँ उठायी गयी हैं उन सबका समाधान धवला में किया है। और यह सब मंगल-दण्डक देशामर्शक है, ऐसा बतलाकर यहाँ मंगल के समान निमित्त व हेतु आदि की प्ररूपणा भी उन्होंने संक्षेप में की है। प्रमाण के प्रसंग में जीवस्थान के समान यहाँ भी उसे ग्रन्थ और अर्थ के प्रमाण से दो प्रकार का कहा है। उनमें ग्रन्थ की अपेक्षा अर्थात् अक्षर, पद, संघात, प्रतिपत्ति और अनुयोगद्वारों की अपेक्षा वह संख्यात है। अर्थ की अपेक्षा वह अनन्त है। प्रकारान्तर से यह भी कहा गया है-अथवा खण्डग्रन्थ की अपेक्षा वेदना का प्रमाण सोलह हजार पद है, उनको जानकर कहना चाहिए। अर्थकर्ता महावीर कर्ता के प्रसंग में यहाँ भी जीवस्थानखण्ड के समान अर्थकर्ता और ग्रन्थकर्ता के भेद से दो प्रकार के कर्ता की प्ररूपणा की गयी है। विशेषता यह रही है कि अर्थकर्ता भगवान् महावीर की प्ररूपणा यहाँ द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा अधिक की गयी है।' यहाँ द्रव्यप्ररूपणा के प्रसंग में भगवान् महावीर के अतिशयित शरीर की और क्षेत्रप्ररूपणा के प्रसंग में समवसरण-मण्डल की प्ररूपणा भी की गयी है (पु० ६, पृ० १०७-१४)। भावप्ररूपणा के प्रसंग में जीव की जडरूपता का निराकरण करते हुए उसे सचेतन सिद्ध किया गया है। साथ ही उसे ज्ञान, दर्शन, संयम, सम्यक्त्व, क्षमा व मार्दव आदि स्वभाववाला बतलाया गया है। आगे कर्मों की नित्यता का निराकरण है। उन्हें सकारण सिद्ध किया गया है । तदनुसार मिथ्यात्व, असंयम और कषाय को उनका कारण कहा गया है। इनके विपरीत यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि सम्यक्त्व, संयम और निष्कषायता उक्त कर्मों के विनाश के कारण हैं । इस प्रकार जीव के स्वाभाविक गुणों के रोधक उन मिथ्यात्व आदि में चूंकि हानि की तरतमता देखी जाती है, इससे सिद्ध होता है कि किसी जीव में उनका पूर्णतया विनाश भी सम्भव है । जिस जीव विशेष में उनका पूर्णतया विनाश हो जाता है उसके स्वाभाविक गुण भी पूर्ण रूप में प्रकट हो जाते है। जैसे-सुवर्णपाषाण अथवा शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा के उत्तरोत्तर मलिनता की हानि होने पर स्वाभाविक निर्मलता की उपलब्धि ।' १. धवला पु. १०७-१४; पु० १, पृ० ६०-७२ २. इस अभिप्राय की तुलना इन पद्यों से करने योग्य है दोषावरणयोर्हानिनिःशेषाऽस्त्यतिशायनात् । क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो बहिरन्तर्मलक्षयः ।।-आ० मी० ४ (शेष पृ० ४६२ पर देखें) षट्खण्डागम पर टोकाएँ । ४६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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