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________________ चार दर्शनावरणीय और पांच अन्तराय इन चौदह प्रकृतियों के उदय का व्युच्छेद क्षीणकषाय के अन्तिम समय में तथा यशःकीर्ति और उच्चगोत्र इन दो के उदय का व्युच्छेद अयोगिकेवली के अन्तिम समय में होता है। आगे धवला में उन तेईस प्रश्नों में से स्वोदय-परोदयादि शेष सभी प्रश्नों का स्पष्टीकरण किया गया है। प्रत्ययविषयक प्रश्न के प्रसंग में धवला में कहा है कि बन्ध सप्रत्यय (सकारण) ही होता है, अकारण नहीं। यह कह धवलाकार ने प्रथमतः वन्ध के मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग इन चार मूल प्रत्ययों का निर्देश किया है। तत्पश्चात् उत्तरप्रत्ययों की प्ररूपणा में मिथ्यात्व के एकान्त, अज्ञान, विपरीत, वैनयिक और सांशयिक इन पाँच भेदों का निर्देश और उनके पृथक्-पृथक् स्वरूप को भी वहाँ स्पष्ट किया है। ___असंयम मूल में इन्द्रिय-असंयम और प्राण-असंयम के भेद से दो प्रकार का है। इन में इन्द्रिय-असंयम स्पर्श, रस, रूप, गन्ध, शब्द और नोइन्द्रिय विषयक असंयम के भेद से छह प्रकार का तथा प्राण-असंयम भी पृथिवी-जलादि के भेद से छह प्रकार का है। इस प्रकार असंयम के समस्त भेद बारह होते हैं। आगे क्रमप्राप्त कषाय के पच्चीम और योग के पन्द्रह भेदों का निर्देश है। इनमें से कषाय के उन भेदों का उल्लेख प्रकृतिसमुत्कीर्तन चूलिका (सूत्र २३-२४) में और योग के भेदों का सत्प्ररूपणा (सूत्र ४६-५६) में किया जा चुका है। ___इस प्रकार समस्त बन्धप्रत्यय सत्तावन (५+ १२+२५+१५) हैं। मिथ्यादष्टि आदि गुणस्थानों में वे जहाँ जितने सम्भव है उनके आश्रय से यथासम्भव वहाँ-वहाँ बँधनेवाली सोलह प्रकृतियों का निर्देश धवला में किया गया है (पु० ८, पृ० १३-३०)। ___आगे ओघप्ररूपणा में सूत्रकार द्वारा निद्रानिद्रा व प्रचलाप्रचला आदि विभिन्न प्रकृतियों के बन्धक-अबन्धकों का निर्देश है (मूत्र ७-३८) । उन सब सूत्रों को देशामर्शक मानकर धवलाकार ने वहाँ बँधनेवाली उन-उन प्रकृतियों के विषय में पूर्वनिर्दिष्ट तेईस प्रश्नों को स्पष्ट किया है (पु० ८, पृ० ३०-७५)। तीर्थकर प्रकृति के बन्धक-अबन्धक इसी प्रसंग में तीर्थक र प्रकृति के कौन बन्धक और कौन अबन्धक हैं, इसका विशेष रूप से विचार करते हुए सूत्रकार ने कहा है कि असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अपूर्वकरणप्रविष्ट उपशमक व क्षपक तक उसके बन्धक हैं, अपूर्वक रण काल का संख्यात बहुभाग जाकर उसके बन्ध का व्युच्छेद होता है । ये बन्धक हैं, शेष सब अबन्धक हैं (मत्र ३७-३८)। पूर्व पद्धति के अनुसार इस सूत्र को भी देशामर्शक कहकर धवलाकार ने तीर्थकर प्रकृति के बन्ध के विषय में भी पूर्वोक्त तेईस प्रश्नों का विवेचन किया है। उनके अनुसार तीर्थकर प्रकृति का बन्ध पूर्व में और उदय पश्चात् व्युच्छिन्न होता है। क्योंकि अपूर्वकरण के सात भागों में से छठे भाग में उसका बन्ध नष्ट हो जाता है, पर उसका उदय सयोगिकेवली के प्रथम समय से लेकर अयोगिकेवली तक रहता है व अयोगिकेवली के अन्तिम समय में उसका व्युच्छेद होता है। उसका बन्ध परोदय से होता है, क्योंकि जिन सगोगिकेवली और अयोगिकेवली गणस्थानों षट्खण्डागम पर टीकाएँ / ४५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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