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________________ होती हैं।' विशेषता यह है कि मूलाचार में जहाँ 'शील' का प्रसंग रहा है वहाँ धवला में उदय प्राप्त कर्मप्रकृतियों का प्रसंग रहा है। इसलिए गाथाओं के अन्तर्गत शब्दों में प्रसंग के अनुरूप परिवर्तन हुआ है। जैसे-पढम सीलपमाणं पढमं पवडिपमाण' आदि । प्रथम गाथा में शब्दपरिवर्तन विशेष हुआ है, पर अभिप्राय दोनों में समान है। यहीं पर आगे 'इन्द्रिय' मार्गणा के प्रसंग में धवला में एकेन्द्रियत्व आदि की क्षायोपशमिक रूपता को दिखलाते हुए सर्वघाती व देशघाती कर्मों का स्वरूप भी प्रकट किया है। 'दर्शन' मार्गणा के प्रसंग में दर्शन के विषय में भी विशेष विचार किया गया है (धवला पु० ७, पृ० ६६-१०२)। स्पर्शनानुगम अनुयोगद्वार (७) में प्रथम पृथिवीस्थ नारकियों के स्पर्शनक्षेत्र के प्रसंग में जो आचार्य तिर्यग्लोक को एक लाख योजन बाहल्यवाला व एक राजु विष्कम्भ से युक्त झालर के समान मानते हैं उनके उस अभिमत को तथा इसके साथ ही जो आचार्य यह कहते हैं कि पांच द्रव्यों का आधारभूत लोक ३४३ घनराजु प्रमाण उपमालोक से भिन्न है उनके अभिमत को भी यहाँ धवला में असंगत ठहराया गया है (धवला पु० ७, पृ० ३७०-७३)। भागाभागानगम अनयोगद्वार (१०) के प्रसंग में भाग और अभाग के स्वरूप का निर्देश करते हुए धवलाकार ने यह दिखाया है कि अनन्तवें भाग, असंख्यातवें भाग और संख्यातवें भाग को भाग तथा अनन्तबहुभाग, असंख्यातबहुभाग और संख्यातबहुभाग को अभाग कहा जाता है। (धवला पु० ७, पृ० ४६५) । ___ 'अल्पबहुत्व' यह इस खण्ड का अन्तिम (११वाँ) अनुयोगद्वार है। यहाँ काय-मार्गणा के आश्रय से अल्पबहुत्व का विचार करते हुए ५८-५६, ७४-७५ और १०५-६ इन सूत्रों में वनस्पतिकायिकों के निगोदजीवों को विशेष अधिक कहा गया है। निगोदजीव साधारणतः वनस्पतिकायिकों के अन्तर्गत ही माने गये हैं। तब ऐसी अवस्था में वनस्पतिकायिकों से निगोदजीवों को विशेष अधिक कहना शंकास्पद रहा है। इसलिए सूत्र ७५ की व्याख्या के प्रसंग में धवला में अनेक शंकाएं उठायी गयी हैं, जिनका समाधान यथासम्भव धवलाकार के द्वारा किया गया है। इसका विचार पीछे 'मूलग्रन्थगतविषय-परिचय' में 'बन्धन' अनुयोगद्वार के अन्तर्गत 'बन्धनीय' के प्रसंग में किया जा चुका है। इसके पूर्व भागाभाग' अनुयोगद्वार में भी उसी प्रकार का एक प्रसंग प्राप्त हुआ है। वहाँ सूत्रकार द्वारा 'सूक्ष्मवनस्पतिकायिक और सूक्ष्म निगोदजीव पर्याप्त सब जीवों के कितने भाग प्रमाण हैं' इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि वे उनके संख्यात बहुभाग प्रमाण हैं (सत्र २. १०, ३१-३२)। इसे स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने कहा है कि सूत्र में जो 'सूक्ष्मवनस्पतिकायिकों' को कह. कर आगे पृथक् से 'निगोदजीवों' का भी उल्लेख किया गया है उससे जाना जाता है कि सब सूक्ष्मवनस्पतिकायिक ही सूक्ष्म जीव नहीं होते-उनसे पृथक् भी वे होते हैं। इस पर यह शंका उत्पन्न हुई है कि यदि ऐसा है तो सब सूक्ष्मवनस्पतिकायिक निगोद ही होते हैं। इस कथन १. ये गाथाएं प्रसंगानुरूप शब्दपरिवर्तन के साथ गो० जीवकाण्ड में भी ३५-३८ व ४०-४२ गाथांकों में पायी जाती हैं। प्रकरण वहाँ प्रमाद का रहा है। २. धवला पु०७, पृ०६१-६८ पदसण्डागम पर टीकाएँ। ४५१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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