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________________ इस शंका के समाधान में धवलाकार ने कहा है कि यह कहना तब संगत हो सकता था जब शुद्ध पर्यायार्थिक नय का आलम्बन लिया जाता, पर वैसा नहीं है। यहाँ जो यह अन्तर की प्ररूपणा की जा रही है वह नैगमनय के आश्रय से की जा रही है। नैगमनय सामान्य और विशेष दोनों को विषय करता है इसलिए उक्त प्रकार से दोष देना उचित नहीं है। इसे और भी स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा है कि प्रथम और अन्तिम ये दोनों मिथ्यात्व पर्यायरूप हैं जो भिन्न नहीं हैं; क्योंकि वे दोनों ही मिथ्यात्व कर्म के उदय से उत्पन्न होनेवाले आप्त, आगम और पदार्थविषयक विपरीत श्रद्धानस्वरूप हैं तथा दोनों का आधार भी वही एक जीव है। इस प्रकार से उन दोनों में समानता ही है, न कि भिन्नता। इसीलिए सूत्र में जो मिथ्यात्व का अन्तर निर्दिष्ट किया गया है उसमें कोई बाधा नहीं है। यही अभिप्राय आगे भी इस अन्तर प्ररूपणा में सर्वत्र ग्रहण करना चाहिए। उक्त मिथ्यात्व का जो उत्कृष्ट अन्तर दो छ्यासठ साग रोपम प्रमाण सूत्र में वर्णित है उसकी व्याख्या में धवलाकार ने उदाहरण देकर कहा है कि कोई एक तिर्यच अथवा मनुष्य चौदह सागरोपम प्रमाण आयुस्थिति वाले लान्तव अथवा कापिष्ठ कल्पवाले देवों में उत्पन्न हुआ। वहाँ उसने एक सागरोपम काल बिताकर द्वितीय सागरोपम के प्रथम समय में सम्यक्त्व को प्राप्त कर लिया। वहाँ वह शेष तेरह सागरोपम काल तक उस सम्यक्त्व के साथ रहकर वहाँ से च्युत हुआ और मनुष्य उत्पन्न हुआ। वहाँ संयम या संयमासंयम का परिपालन कर अन्त में मनुष्यायु से कम बाईस सागरोपम आयुवाले आरण-अच्युत कल्प के देवों में उत्पन्न हुआ। वहाँ से च्युत होकर मनुष्य उत्पन्न हुआ। वहाँ संयम का परिपालन कर उपरिम प्रैवेयक के देवों में इस मनुष्यायु से हीन इकतीस सागरोपम प्रमाण आयुस्थिति के साथ उत्पन्न हुआ। पश्चात् वह अन्तर्मुहूर्त कम पूर्वोक्त छ्यासठ (१३-+२२+३१-६६) सागरोपम के अन्त में परिणाम के वश सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ। उसमें अन्तर्मुहूर्त रहकर उसने पुनः सम्यक्त्व को प्राप्त कर लिया व विश्राम के पश्चात वहाँ से च्यूत होकर मनुष्य उत्पन्न हआ। वहाँ संय अथवा संयमासंयम का पालन कर वह मनुष्यायु से कम बीस सागरोपम आयुस्थिति वाले देवों में उत्पन्न हुआ। तत्पश्चात् यथाक्रम से वह मनुष्यायु से कम बाईस और चौबीस सागरोपम प्रमाण आयुवाले देवों में उत्पन्न हुआ। इस क्रम से अन्तर्मुहूर्त कम दो छ्यासठ (६६+२०+ २२+२४.--१३२) सागरोपमों के अन्तिम समय में वह मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ। इस प्रकार से मिथ्यात्व का वह उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कम दो छ्यासठ सागरोपम प्रमाण प्राप्त हो जाता है। धवलाकार ने यहाँ यह स्पष्ट कर दिया है कि यह उत्पत्ति का क्रम अव्युत्पन्न जनों के समझाने के लिए है। यथार्थ में तो जिस किसी भी प्रकार से दो छ्यासठ सागरोपमों को पूरा किया जा सकता है।' इसी पद्धति से आगे इस ओघ प्ररूपणा में सासादनसम्यग्दष्टि व सम्यग्मिथ्यादष्टि आदि शेष गणस्थानों में तथा आदेश की अपेक्षा क्रम से गति-इन्द्रियादि चौदह मार्गणाओं में भी प्रस्तुत अन्तर की प्ररूपणा की गयी है। आवश्यकतानुसार धवला में यथावसर उसका स्पष्टीकरण है। १. धवला पु० ५, पृ० ५-७ ४२० / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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