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________________ क्षेत्रपरिवर्तन आदि शेष चार परिवर्तनों के बाद धवला में कुछ गाथाओं को उद्धृत करते हुए पुद्गलपरिवर्तन आदि के वारों और उनके कालविषयक अल्पबहुत्व का भी निरूपण है । यथा - अतीतकाल में एक जीव के भावपरिवर्तनवार सबसे स्तोक हैं, उनसे भवपरिवर्तनवार अनन्तगुणे हैं, उनसे कालपरिवर्तनवार अनन्तगुणे हैं, उनसे क्षेत्रपरिवर्तनवार अनन्तगुणे हैं, उनसे पुद्गलपरिवर्तनवार अनन्तगुणे हैं । पुद्गलपरिवर्तन का काल सब में स्तोक है, क्षेत्र परिवर्तन का काल उससे अनन्तगुणा है, कालपरिवर्तन का काल उससे अनन्तगुणा है, भवपरिवर्तन का काल उससे अनन्तगुणा है और भावपरिवर्तन का काल उससे अनन्तगुणा है । उपर्युक्त पुद्गलपरिवर्तन का कुछ कम आधा उस सादि सपर्यवसित मिथ्यादृष्टि का उत्कृष्ट काल है । उसे स्पष्ट करते हुए धवला में कहा है कि कोई एक अनादि मिथ्यादृष्टि अपरीत (अपरिमित) संसारी जीव अधःप्रवृत्त, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण को करके सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ । उस सम्यक्त्व के प्रभाव से उसने उसके ग्रहण करने के प्रथम समय में ही पूर्वोक्त अपरीत संसार को पुद्गलपरिवर्तन के अर्धभाग प्रमाण परिमित संसार कर दिया । अब वह अधिक-से-अधिक इतने काल ही संसारी रहनेवाला है । वैसे उसका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त भी सम्भव है, पर प्रसंग यहाँ उत्कृष्टकाल का है । सम्यक्त्वग्रहण के प्रथम समय में उसका मिथ्यात्व नष्ट हो गया । वह सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्तकाल उपशमसम्यग्दृष्टि रहकर मिथ्यात्व को पुनः प्राप्त हो गया । अब वह सम्यक्त्व पर्याय के नष्ट हो जाने से सादि मिथ्यादृष्टि हो गया । पश्चात् वह इस मिथ्यात्व पर्याय के साथ कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन प्रमाण परिभ्रमण करके अन्तिम भव में मनुष्यों में उत्पन्न हुआ । अन्तर्मुहूर्तमात्र संसार के शेष रह जाने पर वह पुनः तीन कारणों को करके सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ (२) । फिर वेदकसम्यग्दृष्टि हो गया (३) । अन्तर्मुहूर्त में उसने अनन्तानुबन्धी का विसंयोजन किया ( ४ ) । तत्पश्चात् दर्शनमोहनीय का क्षय किया ( ५ ), अनन्तर वह अप्रमत्तसंयत होकर (६), तथा हजारों बार प्रमत्त अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में परिवर्तन करके (७), क्षपकश्रेणि पर आरूढ़ होता हुआ अप्रमत्तगुणस्थान में अधःप्रवृत्त विशुद्धि से विशुद्ध हुआ ( ८ ) । तत्पश्चात् क्रम से अपूर्वकरण (E), अनिवृत्तिकरण, (१०), सूक्ष्म साम्पराय संयत क्षपक ( ११ ), क्षीणकषाय ( १२ ), सयोगिजिन (१३), और अयोगिजिन होकर मुक्त हो गया (१४) । इस प्रकार सम्यक्त्व से सम्बद्ध इन चौदह अन्तर्मुहूर्तों से कम अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण सादि सपर्यवसित मिथ्यात्व का उत्कृष्टकाल प्राप्त होता है ।" यहाँ यह शंका उठायी गयी है कि 'मिथ्यात्व' यह पर्याय है और पर्याय में उत्पाद और व्यय दो ही होते हैं, स्थिति उसकी सम्भव नहीं है । और यदि उसकी स्थिति को भी स्वीकार किया जाता है तो फिर उस मिथ्यात्व के द्रव्यरूपता का प्रसंग प्राप्त होता है, क्योंकि आगम के अनुसार उपपाद, व्यय और स्थिति इन तीनों का रहना द्रव्य का लक्षण है । इस शंका का समाधान करते हुए धवलाकार ने कहा है कि जो एक साथ उन तीनों से युक्त होता है वह द्रव्य है, १. धवला पु० ४, पृ० ३३ ३४; पाँच परिवर्तनों की प्ररूपक ये गाथाएँ उन परिवर्तनों के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए सर्वार्थसिद्धि (२-१०) में भी उद्धृत की गयी हैं । भव और भाव परिवर्तनों से सम्बद्ध गाथाओं में थोड़ा-सा पाठभेद है । २. धवला पु० ४, पृ० ३३-३६ Jain Education International षट्खण्डागम पर टीकाएँ / ४१७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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