SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 464
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उससे उक्त कथन का विरोध क्यों न होगा। इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि उसके साथ तो विरोध होगा, किन्तु सूत्र के साथ उसका विरोध नहीं होगा। इसलिए उस व्याख्यान को ग्रहण करना चाहिए, न कि परिकर्म के उस कथन को; क्योंकि वह सूत्र के विरुद्ध है। सूत्र के विरुद्ध व्याख्यान नहीं होता है, अन्यथा कुछ व्यवस्था ही नहीं बन सकेगी। तात्पर्य यह है कि स्वयम्भूरमण समुद्र के आगे राजु के अर्धच्छेद हैं, पर वहाँ ज्योतिषी देव नहीं हैं। इससे उवत भागहार की उत्पत्ति के लिए तत्प्रायोग्य अन्य संख्यात रूपों को भी राजु के अर्धच्छेदों में से कम करना चाहिए। __ आगे धवलाकार ने पूर्व निर्दिष्ट सूत्र की प्रामाणिकता को लक्ष्य में रखते हुए यह स्पष्ट कर दिया है कि हम(आ० वीरसेन) ने जो यह राजु के अर्धच्छेदों के प्रमाणविषयक परीक्षा का विधान किया है वह अन्य आचार्यों के उपदेश का अनुसरण न कर केवल तिलोयपण्णत्तिसुत्त का अनुसरण करता है। तदनुसार ज्योतिषी देवों के भागहार के प्ररूपक जिस सूत्र का पूर्व में निर्देश है उस पर आधारित युक्ति के बल से प्रकृत गच्छ के साधनार्थ उसकी प्ररूपणा हमने की है। इसके लिए उन्होंने ये दो उदाहरण भी दिए हैं ) जिस प्रकार सासादनसम्यग्दष्टि. आदि के द्रव्यप्रमाण के प्रसंग में हमने अन्तर्महत में प्रयुक्त 'अन्तर' शब्द को समीपार्थक मानकर उसके आधार से अन्तर्मुहूर्त का अर्थ त के समीप (मुहूर्त से अधिक)किया है। इससे उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्दृष्टि का अवहारकाल असंख्यात आवली प्रमाण बन जाता है। इसके विपरीत यदि अन्तर्मुहूर्त को सर्वत्र संख्यात आवलियों प्रमाण ही माना जाय तो वह घटित नहीं होता है। (२) कुछेक पूर्व आचार्यों की मान्यता के अनुसार लोक का आकार चारों दिशाओं में गोल है। उसका विस्तार नीचे तलभाग में सात राजु है। पश्चात् वह ऊपर क्रम से हीन होता हुआ सात राजु ऊपर जाने पर एक राजु मात्र रह गया है। फिर क्रम से आगे वृद्धिंगत होकर वह साढ़े दस राजु ऊपर जाने पर पाँच राजु हो गया है। तत्पश्चात् पुनः हानि को प्राप्त होता हुआ वह अन्त में चौदह राजु ऊपर जाने पर एक राजु रह गया है। धवलाकार का कहना है कि यदि आचार्यों द्वारा प्ररूपित लोक को वैसा स्वीकार किया जाय तो जिन दो गाथासूत्रों के आधार से प्रतरसमुद्घातगत केवली का क्षेत्र कुछ कम (वातवलयरुद्ध क्षेत्र से ही न) ३४३ घनराजु प्रमाण कहा गया है वे गाथासूत्र' निरर्थक ठहरते हैं, क्योंकि उपर्युक्त लोक का घनफल १६४ ३२८ घनराजु ही आता है, जो ३४३ घनराजुओं से हीन है। इससे धवलाकार वीरसेनाचार्य ने लोक को गोलाकार न मानक र आयत चतुरस्र माना है। तदनुसार उसका आकार इस प्रकार रहता है-पूर्व-पश्चिम में नीचे सात राजु, ऊपर १. धवला पु० ४, पृ० १५७;धवला के अन्तर्गत यह प्रसंगप्राप्त गद्य भाग प्रसंगानुरूप शब्द परिवर्तन के साथ वर्तमान 'तिलोयपण्णत्ती' में उसी रूप में उपलब्ध होता है । देखिए, धवला पु० ४, पृ० १५२-५६ तथा ति०प० २, पृ० ६४-६६ । (ति०प० में सम्भवतः उसे धवला से लिया गया होगा।) २. धवला पु० ३, पृ० ६६-७० ३. धवला पु० ४, पृ० २०-२१ ४१० / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy