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________________ गुणित अंगुल के वर्गमूल मात्र विष्कम्भसूची और पल्योपम के असंख्यातवें भाग की अपेक्षा है। सामान्य मिथ्यादृष्टि नारकों की अपेक्षा प्रथम पृथिवीस्थ मिथ्यादृष्टि नारकों की विष्कम्भसूची और अवहारकाल भिन्न है । धवलाकार ने इस भिन्नता की चर्चा विस्तारपूर्वक की है। इस प्रकार की विशेषता के रहने पर द्वितीयादि पृथिवियों में मिथ्यादृष्टि नारकियों के अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है। इस प्रकार धवला में गणित-प्रक्रिया के आश्रय से उसे स्पष्ट करते हुए विविध अंक-संदृष्टियों द्वारा भी प्रथमादि पृथिवियों के मिथ्यादृष्टि नारकों के प्रमाण को स्पष्ट किया गया है।' आगे धवला में इसी प्रकार से द्वितीयादि पृथिवियों के नारकों में सासादन सम्यग्दृष्टियों आदि के भी द्रव्यप्रमाण को स्पष्ट किया गया है। तत्पश्चात् वहाँ नारकों के इस द्रव्यप्रमाण के निर्णयार्थ भागाभाग और अल्पबहुत्व की भी प्ररूपणा की गयी है। इसी पद्धति से आगे धवला में तियंच आदि शेष तीन गतियों तथा इन्द्रिय-कायादि अन्य मार्गणाओं में भी प्रकृत द्रव्यप्रमाण को आवश्यकतानुसार धवला में स्पष्ट किया गया है। ३. क्षेत्रानुगम क्षेत्रानगम का विशदीकरण-जीवस्थान के अन्तर्गत पूर्वोक्त आठ अनुयोगद्वारों में तीसरा क्षेत्रानगम अनुयोगद्वार है। यहाँ सर्वप्रथम धवलाकार ने प्रथम सूत्र की व्याख्या करते हुए इस अनुयोगद्वार के प्रयोजन को दिखलाया है। उन्होंने कहा है कि जिन चौदह जीवसमासों के अस्तित्व का ज्ञान सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार के आश्रय से कराया गया है तथा 'द्रव्यप्रमाणानुगम' के द्वारा जिनके द्रव्यप्रमाण का भी बोध कराया जा चुका है उन चौदह जीवसमासों के क्षेत्र का परिज्ञान कराने के लिए इस 'क्षेत्रानुगम' अनुयोगद्वार का अवतार हुआ है। प्रकारान्तर से उन्होंने उसका यह भी प्रयोजन बतलाया है कि जीवराशि तो अनन्त है और लोकाकाश असंख्यात प्रदेशवाला ही है. ऐसी अवस्था में समस्त जीवराशि उस लोक में कैसे समा सकती है, इस प्रकार के सन्देह से व्याकुल शिष्य के उस सन्देह को दूर करने के लिए इस अनुयोगद्वार का अवतार हुआ है। ___आगे क्षेत्रविषयक निक्षेप के प्रसंग में उसके स्वरूप को प्रकट करते हुए धवला में कहा गया है कि जो संशय, विपर्यय अथवा अनध्यवसाय में स्थित तत्त्व को उनसे हटाकर निश्चय में रखता है उसे निक्षेप कहते हैं। अथवा बाह्य अर्थ के विकल्प को निक्षेप समझना चाहिए। अथवा जो अप्रकृत अर्थ का निराकरण करके प्रकृत अर्थ की प्ररूपणा करता है उसका नाम निक्षेप है। निक्षेप विषयक इस अभिप्राय की पुष्टि धवला में उद्धृत इस गाथा द्वारा इस प्रकार की गयी है-- अपगयणिवारणट्ठ पयवस्स परवणाणिमित्तं च । संशयविणासणटुं तच्चत्यवधारण? च ॥ १. धवला पु० ३, पृ० १५६-६८ २. वही, १९८-२०७ ३. वही, २०७-१४ षट्खण्डागम पर टीकाएं / ४०१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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