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________________ क्षेत्रभावप्रमाण और कालविशिष्ट द्रव्य के ज्ञान को कालभावप्रमाण जानना चहिए।' यहाँ धवला में यह शंका उठायी गयी है कि सूत्र में भावप्रमाण की प्ररूपणा क्यों नहीं की गयी। इसके उत्तर में कहा गया है कि सूत्र में उसकी प्ररूपणा न करने पर भी वह स्वयं सिद्ध है, क्योंकि भावप्रमाण के बिना उन तीन प्रमाणों की सिद्धि सम्भव नहीं है। कारण यह कि मुख्य प्रमाण के अभाव में गौण प्रमाणों की सम्भावना नहीं रहती है। प्रकारान्तर से यहाँ यह भी कहा गया है - अथवा भावप्रमाण के बहुवर्णनीय होने से हेतुवाद और अहेतुवाद का अवधारण करनेवाले शिष्यों का अभाव होने से उस भावप्रमाण की प्ररूपणा सूत्र में नहीं की गयी है। __ अन्य विकल्प के रूप में धवला में यह भी कहा है-अथवा भावप्रमाण की प्ररूपणा में मिथ्यादृष्टि जीवराशि का समस्त पर्यायों में भाग देने पर जो लब्ध हो उसे भागहार मानकर सब पर्यायों के ऊपर खण्डित, भाजित, विरलित और अपहृत का कथन करना चाहिए । आगे इन खण्डित-भाजित आदि को भी धवला में स्पष्ट किया गया है। इसी प्रसंग में धवलाकार ने "मिथ्यादृष्टि जीवराशि के विषय में श्रोताजनों को निश्चय उत्पन्न कराने के लिए यहाँ हम मिथ्यादृष्टि :शि के प्रमाण की प्ररूपणा खण्डित, भाजित, विरलित, अपहृत, प्रमाण, कारण, निरुक्ति और विकल्प के द्वारा करते हैं"; ऐसी प्रतिज्ञा करते हए तदनुसार ही आगे प्ररूपणा की गयी है। यहाँ शंका की गयी है कि सूत्र के न रहते हुए उसका कथन कैसे किया जाता है। उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि वह सूत्र से सूचित है।' सासावनसम्यग्दृष्टि आदि का द्रव्यप्रमाण अगले सूत्र में सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर संयतासंयतपर्यन्त चार गुणस्थानवी जीवों के द्रव्यप्रमाण की प्ररूपणा की गयी है। (सूत्र १,२,६,) इसकी व्याख्या के प्रसंग में यह शंका उठायी गयी है कि इन चार गुणस्थानवी जीवों की प्ररूपणा क्षेत्रप्रमाण और कालप्रमाण के द्वारा क्यों नहीं की गयी। इसका समाधान करते हुए धवला में कहा गया है कि जिन कारणों से मिथ्यादृष्टियों की प्ररूपणा उन क्षेत्रप्रमाण और कालप्रमाण के द्वारा की गयी है वे कारण यहाँ सम्भव नहीं हैं। ___ वे कारण कौन से हैं, इसे स्पष्ट करते हुए आगे धवला में कहा गया है कि लोक असंख्यात प्रदेश वाला ही है, उसमें अनन्त जीव कैसे समा सकते हैं। इस प्रकार के सन्देहयुक्त जीवों के उस सन्देह को दूर करने के लिए क्षेत्रप्रमाण की प्ररूपणा की जाती है। इसी प्रकार समस्त जीवराशि आय से तो रहित है, पर सिद्धि को प्राप्त होनेवाले जीवों की अपेक्षा वह व्यय से सहित है। इस परिस्थिति में वह जीवराशि समाप्त क्यों नहीं होती है, इस प्रकार के सन्देह को नष्ट करने के लिए कालप्रमाण की प्ररूपणा की जाती है। इन दो कारणों में से प्रकृत में एक भी कारण सम्भव नहीं है। इसीलिए उपर्युक्त सासादन सम्यग्दृष्टि आदि चार गुणस्थानवी जीवों के क्षेत्रप्रमाण और कालप्रमाण की प्ररूपणा ग्रन्थ में नहीं की गयी है। १. धवला पु० ३, पृ० ३६ २. धवला पु०३, पृ०३६-६३ ३. वही, ६३-६४ षट्खण्डागम पर टीकाएँ / ३६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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