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________________ दर्शनविषयक कुछ विचार पीछे 'वीरसेन की न्यायनिपुणता' शीर्षक में भी हम कर आये हैं। ___ आगे प्रकृति समुत्कीर्तन चूलिका में दर्शनावरणीय के प्रसंग में भी दर्शन के स्वरूप का निर्देश है । तदनुसार ज्ञान के उत्पादक प्रयत्न से अनुविद्ध स्वसंवेदन को दर्शन कहा गया है। वह भी आत्मविषयक उपयोग ही है। इसे कुछ और भी स्पष्ट करते हुए आगे धवला में उल्लेख है कि चाइन्द्रियजन्य ज्ञान के उत्पादक प्रयत्न से सम्बद्ध आत्मसंवेदन के होने पर 'मैं रूप के देखने में समर्थ हूँ' इस प्रकार की सम्भावना का जो कारण है उसे चक्षुदर्शन समझना चाहिए । कितने ही विद्वान् बाह्य पदार्थ के सामान्य ग्रहण को दर्शन मानते हैं। उनके इस अभिमत का निराकरण करते हए पूर्व के समान समस्त पदार्थों में साधारण होने से आत्मा को सामान्य मानकर तद्विषयक उपयोग को ही दर्शन कहा गया है। अन्य कितने ही आचार्य 'केवलज्ञान ही एक आत्मा और बाह्य पदार्थों का प्रकाशक है' यह कहते हुए केवलदर्शन के अभाव को प्रकट करते हैं। उनके इस अभिप्राय का निराकरण करते हुए यहाँ धवला में यह कहा गया है कि केवलज्ञान पर्याय है, अत: उसके अन्य पर्याय सम्भव नहीं है। इस कारण उसके आत्मा और बाह्य पदार्थ दोनों के ग्रहण रूप दो प्रकार की शक्ति सम्भव नहीं है, अन्यथा अनवस्था दोष का प्रसंग अनिवार्यतः प्राप्त होगा।' प्रस्तुत षट्खण्डागम के द्वितीय क्षुद्रकबन्ध खण्ड के अन्तर्गत ग्यारह अनुयोगद्वारों में प्रथम स्वामित्व अनुयोगद्वार है। उसमें दर्शनमार्गणा के प्रसंग में चक्षुदर्शनी व अचक्षुदर्शनी आदि किस कारण से होते हैं. इस पर विचार किया गया है। उस प्रसंग में वादी ने दर्शन के अभाव को सिद्ध करने के लिए अपने पक्ष को प्रस्तुत करते हुए यह कहा है कि दर्शन है ही नहीं, क्योंकि उसका कुछ भी विषय नहीं है। यदि यह कहा जाय कि वह बाह्य अर्थगत सामान्य को विषय करता है तो यह कहना उचित नहीं है, क्योंकि वैसा स्वीकार करने पर केवल दर्शन के अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है। इसे स्पष्ट करते हुए वादी कहता है कि तीनों काल सम्बन्धी अर्थ और व्यंजनपर्यायोंरूप समस्त द्रव्यों को केवलज्ञान जानता है। वैसी अवस्था में केवलदर्शन का कुछ भी विषय शेष नहीं रह जाता। तथा केवलज्ञान द्वारा जाने गये विषय को ही यदि केवलदर्शन ग्रहण करता है तो गृहीत के ग्रहण से कुछ प्रयोजन सिद्ध होनेवाला नहीं। यह कहना भी उचित नहीं कि केवलज्ञान जब समस्त पदार्थगत विशेष मात्र को ग्रहण करता है और केवलदर्शन समस्त पदार्थगत सामान्य को ग्रहण करता है तब केवलदर्शन निविषय कहाँ रहा ? ऐसा न कह सकने का कारण यह है कि वैसा स्वीकार करने पर संसार अवस्था में आवरण के वश क्रम से प्रवृत्त होनेवाले ज्ञान और दर्शन द्वारा द्रव्य के न जानने का प्रसंग प्राप्त होगा। कारण यह कि आपके ही मतानुसार केवलज्ञान का व्यापार तो सामान्य से रहित केवल विशेषों में है और दर्शन का व्यापार विशेष से रहित केवल सामान्य में है। इस प्रकार वे दोनों ही द्रव्य को नहीं जान सकते। यही नहीं, केवली के द्वारा भी द्रव्य का ग्रहण न हो सकेगा, क्योंकि सर्वथा एकान्तरूप में स्वीकृत सामान्य और विशेष के विषय में क्रम से व्याप्त रहने वाले केवलदर्शन और केवलज्ञान की द्रव्य के विषय में प्रवृत्ति का विरोध है। इसके अति १. धवला पु० ६, पृ० ३२-३४ षट्लण्डागम पर टीकाएँ । ३७६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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