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________________ अलंकार तो अन्तहित हैं ही, साथ ही वहां विरोधाभास और यमक अलंकार भी स्पष्ट दिखते हैं। उदाहरणार्थ, विरोधाभास इस मंगलगाथा में निहित है सयलगण-पंउम-रविणो विविद्धिविराइया विनिस्संगा। ___णीराया वि कुराया गणहरदेवा पसीयं तु ॥३॥ ___ यहाँ गणधरदेवों की प्रसन्नता की प्रार्थना करते हुए उन्हें नीराग होकर भी कुराग कहा गया है। इसमें आपाततः विरोध का आभास होता है, क्योंकि जो नीराग --रागसे रहित... होगा वह कुराग----कुत्सित राग से अभिभूत-नहीं हो सकता। परिहार उसका यह है कि वे वोतराग होकर भी कुराग-जनानुरागी-रहे हैं । 'कु' का अर्थ पृथिवी होता है। उससे लोक व जन अपेक्षित है। अभिप्राय यह कि वे धर्मवत्सलता से प्रेरित होकर उन्हें सदुपदेश द्वारा मोक्षमार्ग में प्रवृत्त करते हैं। रूपक भी यहाँ है। '. यमकालंकार का उदाहरण पणमह कयभूयबलि भूयबलि केसवासपरिभयबलि । विणियबम्हहपसरं वड्ढाधियविमलणाण-बम्हहपसरं ॥६॥ यहाँ प्रथम और द्वितीय पदके अन्त में 'भूयबलि' की तथा तृतीय और चतुर्थ पद के अन्त में 'बम्महपसर' की पुनरावृत्ति हुई है। यमकालंकार में शब्दश्रुति के समान होने पर भी अर्थ भिन्न हुआ करता है। तदनुसार यहाँ प्रथम 'भूतबलि' का अर्थ भतों द्वारा पूजा का किया जाना तथा द्वितीय 'भूतबलि' का अर्थ केशपाश के द्वारा बलि का पराभव किया जाना अपेक्षित है। इसी प्रकार 'बम्हहपसर' का अर्थ वम्हह अर्थात् मन्मथ (काम) का निग्रह करना तथा निर्मलज्ञान के द्वारा ब्रह्मन् (आत्मा) के प्रसार को बढ़ाना अपेक्षित रहा है। ___ आ० वीरसेन की बहुश्रुतशालिता को प्रकट करनेवाले जो प्रसंग उनकी धवला टीका से ऊपर दिये गये हैं उनसे उनकी अनुपम सैद्धान्तिक कुशलता के साथ यह भी निश्चित होता है कि उनकी गति ज्योतिष, गणित, व्याकरण, न्यायशास्त्र आदि अनेक विषयों में अस्खलित रही है। __ जैसाकि उन्होंने पूर्वोक्त प्रशस्ति में संकेत किया है, छन्दशास्त्र में भी उन्हें निष्णात होना चाहिए, पर धवला में ऐसा कोई प्रसंग प्राप्त नहीं हुआ है। यद्यपि धवला और जयधवला टीकाओं के अतिरिक्त वीरसेनाचार्य की अन्य कोई कृति उपलब्ध नहीं है, पर यह सम्भव है कि उनकी 'स्तुति' आदि के रूप में कोई छोटी-मोटी पद्यात्मक कृति रही हो, जिसमें अनेक छन्दों का उपयोग हुआ हो। धवलागत विषय का परिचय १. जीवस्थान-सत्प्ररूपणा __ मूल ग्रन्थगत विषय का परिचय पूर्व में कराया जा चुका है। अत: यहां उन्हीं विषयों का परिचय कराया जाएगा जिनकी प्ररूपणा मूल सूत्रों में नहीं की गई है, फिर भी उनसे सूचित होने के कारण धवलाकार ने अपनी इस टीका में यथाप्रसंग उनका निरूपण विस्तार से किया है। ३६४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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