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________________ विषय का विचार गम्भीरतापूर्वक युक्ति-प्रयुक्ति के साथ दार्शनिक दृष्टि से किया है। यह उनके मंजे हुए तार्किक होने का भी प्रमाण है । जैसे (१) सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार में दर्शनमार्गणा के प्रसंग में चक्षुदर्शन के लक्षण का निर्देश करते हुए धवला में कहा गया है कि चक्षु के द्वारा जो सामान्य अर्थ का ग्रहण होता है उसे चक्षुदर्शन करते हैं। इस पर वादी ने कहा है कि विषय और विषयी के सम्पात के अनन्तर जो प्रथम ग्रहण होता है उसे अवग्रह कहा जाता है। वह बाह्य अर्थगत विधिसामान्य को ग्रहण नहीं करता है, क्योंकि वह अवस्तु रूप है इसलिए वह ज्ञान का विषय नहीं हो सकता है । इसके अतिरिक्त जो ज्ञान प्रतिषेध को विषय नहीं करता है उसके विधि में प्रवृत्त होने का विरोध है । यदि वह विधि को विषय करता है तो वह क्या प्रतिषेध से भिन्न उसे ग्रहण करता है या उससे अभिन्न ? यदि उनमें प्रथम विकल्प को स्वीकार किया जाता है तो वह उचित न होगा, क्योंकि प्रतिषेध के बिना विधिसामान्य का ग्रहण असम्भव है । तब दूसरे विकल्प को स्वीकार कर यदि यह कहा जाए कि वह ज्ञान प्रतिषेध से अभिन्न विधि को ग्रहण करता है तो यह कहना भी संगत नहीं होगा, क्योंकि वैसी अवस्था में विधि-प्रतिषेध दोनों के ग्रहण में अन्तर्भूत होने से वह स्वतन्त्र विधिसामान्य का ग्रहण नहीं हो सकता। आगे वादी पुनः यह कहता है कि उक्त प्रकार से विधिसामान्य के ग्रहण के सम्भव न होने पर यदि बाह्यार्थगत प्रतिषेधसामान्य को उस शान का विषय माना जाय तो यह भी सम्भव न होगा, क्योंकि जो दोष विधिसामान्य के ग्रहण में दिये गये हैं वे अनिवार्यतः इस पक्ष में भी प्राप्त होनेवाले हैं। इसलिए विधिप्रषेधात्मक बाह्य अर्य के ग्रहण को अवग्रह कहना चाहिए । सो इस प्रकार के अवग्रह को दर्शन नहीं माना जा सकता, क्योंकि जो सामान्य को ग्रहण करता है उसका नाम दर्शन है, ऐसा उपदेश है। इस प्रकार वादी ने अपने पक्ष को स्थापित कर दर्शन का अभाव सिद्ध करना चाहा है। ___वादी के उपर्युक्त पक्ष का निराकरण करते हुए धवलाकार ने कहा है कि दर्शन के विषय में जिन दोषों को उद्भावित किया गया वे उसके विषय में लागू नहीं होते, क्योंकि वह बाह्य पदार्थ को विषय ही नहीं करता है, उसका विषय तो अन्तरंग अर्थ है । वह अन्तरंग अर्थ भी सामान्य-विशेषात्मक है । और चूंकि उपयोग की प्रवृत्ति विधिसामान्य या प्रतिषेधसामान्यों में क्रम से बनती नहीं है, इसलिए उनमें उसकी प्रवृत्ति को एक साथ स्वीकार करना चाहिए। इस पर वादी पुन: कहता है कि वैसा मानने पर अन्तरंग अर्थ के विषय करनेवाले उस उपयोग को भी दर्शन नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि उसका विषय सामान्य-विशेष माना गया है, जबकि दर्शन सामान्य को ही विषय करनेवाला है। इसके उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि 'सामान्य' शब्द से सामान्य-विशेषात्मक आत्मा को ही कहा जाता है। आगे सामान्य-विशेषात्मक उस आत्मा को कैसे सामान्य कहा जाता है, इसे स्पष्ट करते हुए में कहा है कि चक्ष इन्द्रिय का क्षयोपशम रूप के विषय में ही नियमित है, क्योंकि उसके द्वारा रूपविशिष्ट पदार्थ का ही ग्रहण देखा जाता हैं । इस प्रकार रूपविशिष्ट अर्थ के ग्रहण करने में भी वह रूपसामान्य में ही नियमित है, क्योंकि नील-पीतादिकों में किसी एक रूप से ही विशिष्ट अर्थ का ग्रहण नहीं देखा जाता है। इस प्रकार चक्षुइन्द्रिय का क्षयोपशम रूपविशिष्ट पदार्थ के प्रति समान है, और चूंकि आत्मा को छोड़कर क्षयोपशम कुछ सम्भव है नहीं, इसीलिए आत्मा भी समान है। इस समान आत्मा के भाव षट्खण्डागम पर टीकाएँ । ३५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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