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________________ (१) सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार के प्रारम्भ में आचार्य पुष्पदन्त द्वारा किये गये पंच-परमेष्ठिनमस्कारात्मक मंगल के प्रसंग में धवलाकार ने धातु, निक्षेप, नय, निरुक्ति और अनुयोगद्वार के आश्रय से मंगल के निरूपण की प्रतिज्ञा की है। इनमें धातु क्या है, इसे स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि सत्तार्थक 'भू' धातु को आदि लेकर जो समस्त अर्थवस्तुओं के वाचक शब्दों की मूल कारणभूत हैं उन्हें धातु कहा जाता है। प्रकृत में 'मंगल' शब्द को 'मगि' धातु से निष्पन्न कहा गया है। यहाँ यह शंका की गई है कि धातु की प्ररूपणा यहाँ किस लिए की जा रही है। इसके उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि जो शिष्य धातुविषयक ज्ञान से रहित होता है उसे उसके बिना अर्थ का बोध होना सम्भव नहीं है। इस प्रकार शिष्य को शब्दार्थ का बोध हो, इसके लिए धातु की प्ररूपणा की जा रही है। आगे अपने अभिप्राय की पुष्टि में इस श्लोक को उद्धृत करते हुए यह स्पष्ट कर दिया है कि पदों की सिद्धि शब्दशास्त्र से हुआ करती है' __ शब्दात् पदप्रसिद्धिः पदसिद्धरर्थनिर्णयो भवति । अर्थात् तत्त्वज्ञानं तत्त्वज्ञानात् परं श्रेयः ॥२ अभिप्राय यह है शब्द (व्याकरण) से पदों की सिद्धि होती है, पदों की सिद्धि से अर्थ का निर्णय होता है, अर्थ से वस्तु-स्वरूप का बोध होता है, और वस्तु-स्वरूप का बोध होने से उत्कृष्ट कल्याण होता है। इस प्रकार इस सबका मूल कारण धातु-ज्ञान है जो व्याकरण सापेक्ष है। आगे धवला में मंगल (पु०१, पृ० ३२-३४), अरिहन्त (पृ०४२-४४), आचार्य (पृ०४८) साधु (पृ०५१), जीवसमास (पृ० १३१) और मार्गणार्थता (पृ०१३१) आदि शब्दों की निरुक्ति की गयी है। (२) जीवस्थान खण्ड के अन्तर्गत आठ अनुयोगद्वारों में दूसरा 'द्रव्यप्रमाणानुगम' अनुयोगद्वार है। उसमें उसके शब्दार्थ को स्पष्ट करते हुए धवला में प्रथमतः 'द्रवति, द्रोष्यति, अदुद्रवत्, पर्यायान् इति द्रव्यम् । अथवा द्रूयते, द्रोष्यते, अद्रावि पर्याय इति द्रव्यम्' इस प्रकार 'द्रव्य' शब्द की निरुक्ति की गई है। तत्पश्चात् द्रव्यभेदों को प्रकट करते हुए उनमें जीवद्रव्य को प्रसंगप्राप्त बतलाकर 'प्रमाण' शब्द की निरुक्ति इस प्रकार की गई है-प्रमीयन्ते अनेन अर्थाः इति प्रमाणम। अनन्तर 'द्रव्य' और 'प्रमाण' इन दोनों शब्दों में 'द्रव्यस्य प्रमाणं द्रव्यप्रमाणम्' इस प्रकार से 'तत्पुरुष' समास किया गया है। ___इस पर यहाँ यह शंका उपस्थित हुई है कि 'देवदत्तस्य कम्बलः' ऐसा समास करने पर जिस प्रकार देवदत्त से कम्बल भिन्न रहता है उसी प्रकार 'द्रव्यस्य प्रमाणम्' ऐसा यहाँ तत्पुरुष समास करने पर द्रव्य से प्रमाण के भिन्न होने का प्रसंग प्राप्त होगा। इस शंका के समाधान में धवलाकार ने कहा है कि ऐसा नहीं है, वह तत्पुरुष समास अभेद में भी देखा जाता है। जैसे--'उत्पलगन्धः' इत्यादि में। यहाँ उत्पल से गन्ध के भिन्न न होने पर भी 'उत्पलस्य गन्धः उत्पलगन्धः' इस प्रकार से तत्पुरुष समास हुआ है। प्रकारान्तर स १. धवला पु० १, पृ० ६-१० २. यह श्लोक 'शाकटायनन्यास, में उपलब्ध होता है। विशेष इतना है कि वहाँ 'शब्दात् पद प्रसिद्धिः' के स्थान में 'व्याकरणात् पदसिद्धिः' पाठ भेद है। षट्खण्डागम पर टीकाएँ / ३५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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