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________________ कर्ता की ओर वहाँ संकेत नहीं किया गया है, जबकि धवलाकार ने 'वुत्तं च पंचत्थिपाहुडे' ऐसा निर्देश करते हुए कुन्दकुन्दाचार्य विरचित पंचास्तिकाय की १०० व १०७ गाथाओं को धवला में उद्धृत किया है । इसके अतिरिक्त धवला में गुणधर, समन्तभद्र, यतिवृषभ, पूज्यपाद और प्रभाचन्द्र भट्टारक आदि के नामों का उल्लेख करते हुए भी वहाँ परिकर्म के कर्ता के रूप में कहीं किसी का उल्लेख नहीं किया गया है। इससे यही प्रतीत होता है कि धवलाकार ने परिकर्म को षट्खण्डागम की टीका, और वह भी कुन्दकुन्दाचार्य विरचित, नहीं समझा। धवला के अन्तर्गत परिकर्म के उल्लेखों को देखने से यह निश्चित है कि 'परिकर्म' एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ रहा है और उसका सम्बन्ध गणित से विशेष रहा है। उसे धवला में एक-दो प्रसंग में जो 'सर्व आचार्यसम्मत' कहा गया है उससे भी ज्ञात होता है कि वह पुरातन आचार्यों में एक प्रतिष्ठित ग्रन्थ रहा है। पर वह किसके द्वारा व कब रचा गया है, यह ज्ञात नहीं होता। _ 'परिकर्म' का उल्लेख अंगश्रुत में किया गया है। अंगों में १२वा दृष्टिवाद अंग है। उसके परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका इन पाँच अर्थाधिकारों में 'परिकर्म' प्रथम है। उसके ये पाँच भेद हैं-चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, दीपसागरप्रज्ञप्ति और व्याख्याप्रज्ञप्ति । इन प्रज्ञप्तियों पर गणित का प्रभाव होना चाहिए। वर्तमान में ये चन्द्र-सूर्यप्रज्ञप्ति आदि श्वे० सम्प्रदाय में उपलब्ध हैं, पर जैसा उनका पदप्रमाण आदि निदिष्ट किया गया है उस रूप में वे नहीं हैं । इस ‘परिकर्म' का धवलाकार के समक्ष रहना सम्भव नहीं है। २. शामकुण्डकृत पद्धति श्रुतावतार में आगे कहा गया है कि तत्पश्चात् कुछ काल के बीतने पर शामकुण्ड नामक आचार्य ने पूर्ण रूप से दोनों प्रकार के आगम का ज्ञान प्राप्त किया और तब उन्होंने प्ति किया और तब उन्होंने विशाल महाबन्ध नामक छठे खण्ड के बिना दोनों सिद्धान्त ग्रन्थों पर बारह हजार ग्रन्थ प्रमाण प्राकृत, संस्कृत और कर्नाटक भाषा मिश्रित 'पद्धति' की रचना की। इस 'पद्धति' का अन्यत्र कहीं कुछ उल्लेख नहीं देखा गया है। वर्तमान में वह भी अनुपलब्ध है। ३. तुम्बुलूराचार्य कृत चूडामणि श्रुतावतार में आगे कहा गया है कि उपर्युक्त 'पद्धति' की रचना के पश्चात् कितने ही काल के बीतने पर तुम्बुलूर ग्राम में तुम्बुलूर नामक आचार्य हुए। उन्होंने छठे खण्ड के बिना १. धवला पु०४, पृ० ३१५ २. काले तत: कियत्यपि गते पुनः शामकुण्डसंज्ञेन । आचार्येण ज्ञात्वा द्विभेदमप्यागमः [मं] कान्यात् ।।१५२॥ द्वादशगुणितसहस्र ग्रन्थं सिद्धान्तयोरुभयोः । षष्ठेन विना खण्डेन पृथुमहाबन्धसंज्ञेन ॥१६३।। प्राकृत-संस्कृत कर्णाटभाषया पद्धतिः परा रचिता । १६४ पू० । ३४० / षटखण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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