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________________ एक उपदेश के अनुसार तिर्यग्लोक को एक लाख योजन बाहल्यवाला और एक राजु विस्तृत गोल माना गया है। उसे असंगत ठहराते हुए धवला में कहा गया है कि ऐसा मानने पर लोक के प्रमाण में ३४३ धनराजु की उत्पत्ति घटित नहीं होती। दूसरे, वैसा मानने पर समस्त आचार्यसम्मत परिकर्मसूत्र के साथ विरोध का प्रसंग भी प्राप्त होता है, क्योंकि वहाँ ऐसा कहा गया है "रज्जु सत्तगुणिदा जगसेढी, सा वग्गिदा जगपदरं, सेढीए गुणिदजगपदरं घणलोगो होदि, त्ति परियम्मसुत्तेण सव्वाइरियसम्मदेण विरोहप्पसंगादो च।" -पु. ४, पृ० १८३-८४ यहाँ यह विशेष ध्यान देने योग्य है कि धवलाकार ने उक्त परिकर्म का उल्लेख सूत्र के रूप में किया है। साथ ही, उसे उन्होंने सब आचार्यों से सम्मत भी बतलाया है। ३. अन्यत्र, सूत्र के विरुद्ध होने से धवलाकार ने उसे अप्रमाण भी ठहरा दिया है जैसे आचार्य वीरसेन के अभिमतानुसार स्वयम्भूरमण समुद्र के आगे भी राजू के अर्धच्छेद पड़ते हैं। इस मान्यता की पुष्टि में उन्होंने दो सौ छप्पन सूच्यंगुल के वर्ग प्रमाण जगप्रतर का भागहार बतलानेवाले सूत्र' को उपस्थित किया है। इस पर शंकाकार ने उक्त मान्यता के साथ परिकर्म का विरोध दिखलाते हुए कहा है कि "जितने द्वीप-सागर रूप हैं तथा जितने जम्बूद्वीप के अर्धच्छेद हैं, रूप (एक) अधिक उतने ही राजू के अर्धच्छेद होते हैं" इस परिकर्म के साथ उस व्याख्यान का विरोध क्यों न होगा? इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि उसके साथ अवश्य विरोध होगा, किन्तु सूत्र के साथ नहीं होगा। इसलिए इस व्याख्यान को ग्रहण करना चाहिए, न कि उस परिकर्म को, क्योंकि वह सूत्र के विरुद्ध जाता है।' प्रसंगवश यहाँ ये तीन उदाहरण दिये गये हैं। इस सम्बन्ध में विशेष विचार आगे 'ग्रन्थोल्लेख' के अन्तर्गत 'परिकर्म' के प्रसंग में विस्तार से किया जाएगा। 'परिकर्म' का क्या आचार्य कुन्दकुन्द विरचित टीका होना सम्भव है ? 'परिकर्म' कुन्दकुन्दाचार्य विरिचित षट्खण्डागम की टीका रही है, इस सम्बन्ध में कुछ विचारणीय प्रश्न उत्पन्न होते हैं जो ये हैं १. जैसाकि ऊपर कहा जा चुका है, धवला में जहाँ-जहाँ परिकर्म का उल्लेख किया गया है वहाँ सर्वत्र परिकर्म का प्रमुख वर्णनीय विषय गणितप्रधान रहा है। उधर आचार्य कुन्दकुन्द आध्यात्म के मर्मज्ञ रहे हैं, यह उनके द्वारा विरचित समयप्राभूतादि ग्रन्थों से सिद्ध है। ऐसी स्थिति में क्या यह सम्भव है कि वे षट्खण्डागम पर गणितप्रधान परिकर्म नामक टीका लिख सकते हैं ? २. ऊपर परिकर्म से सम्बन्धित जो तीन उदाहरण दिये गये हैं उनमें से दूसरे उदाहरण में परिकर्म का उल्लेख सूत्र के रूप में किया गया है। क्या धवलाकार उस परिकर्म टीका का उल्लेख सूत्र के रूप में कर सकते हैं ? ३. आचार्य कुन्दकुन्द विरचित जितने भी समयप्राभूत आदि ग्रन्थ उपलब्ध हैं वे सब गाथाबद्ध ही हैं, कोई भी उनकी कृति गद्यरूप में उपलब्ध नहीं है । तब क्या गाथाबद्ध समय १. वह सूत्र है—“खेत्तेण पदरस्स बेछप्पण्णंगुलसयवग्गपडिभागेण। --पु० ३, पृ० २६६ २. धवला पु०४, पृ० १५५-५६ ३३८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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