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________________ कालो त य ववएसो सम्भावप रूवगो हवदि णिल्यो । उप्पण्णप्पद्धंसी अवरो दीहंतरट्ठाई ॥ १०१ ॥ यह गाथा जी० का ० में उसी रूप में ग्रन्थ का अंग बन गई है ( ५७९ ) । जीवकाण्ड में 'कालो त्ति' के स्थान में 'कालो वि य' पाठ है, जो सम्भवतः लिपि के दोष से हुआ है । इस प्रकार पंचास्तिकाय और तत्त्वार्थ सूत्र द्रव्यों के विषय में चर्चा है उसी प्रकार से आगे प्रसंग में उनके विषय में विचार किया गया है । ( ५वां अध्याय) आदि में जिस प्रकार से छह पीछे जी० का ० में भी सम्यक्त्वमार्गणा के २६. जी० का० के आलापाधिकार में जो गुणस्थान और मार्गणाओं से सम्बन्धित आलापों की प्ररूपणा की गई है उसके बीज ष० ख० में सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार के अन्तर्गत पृथक्-पृथक् प्रत्येक मार्गणा में पाये जाते हैं। पर्याप्त अपर्याप्त गुणस्थानों का विचार वहीं योगमार्गणा के प्रसंग में विशेष रूप से किया गया है । इसके अतिरिक्त जैसा कि पूर्व में संकेत किया जा चुका है, आचार्य वीरसेन ने धवला में उक्त सत्प्ररूपणा सूत्रों की 'प्ररूपणा' के रूप में पूर्वोक्त बीस प्ररूपणाओं का विचार बहुत विस्तार से किया है, जो एक स्वतंत्र पुस्तक के रूप में ष०ख० की दूसरी पुस्तक में निबद्ध है । बीस प्ररूपणाओं का अन्तर्भाव षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड जीवस्थान में प्रमुखता से गुणस्थान ( ओघ ) और मार्गणा (आदेश) इन दो की ही प्ररूपणा की गई है । ष० ख० अन्तर्गत सत्प्ररूणा सूत्रों से सूचित बीस प्ररूपणाओं की जो व्याख्या धवलाकार के द्वारा की गई है उसमें एक शंका के समाधान में धवलाकार ने जीवसमास व पर्याप्तियों आदि का अन्तर्भाव मार्गणाओं में कहाँ-कहाँ किस प्रकार होता है, इसे स्पष्ट कर दिया है । जीवकाण्ड में भी वस्तुतः ओघ और आदेश की प्रमुखता से ( गाथा ३) ही बीस प्ररूपणाओं का विवेचन किया गया है । वहाँ भी धवला के समान जीवसमास व पर्याप्तियों आदि का अन्तर्भाव मार्गणाओं में व्यक्त किया है, जो धवला से पूर्णतया प्रभावित है । ' इसके लिए उदाहरण के रूप में दोनों ग्रन्थों का थोड़ा-सा प्रसंग यहाँ प्रस्तुत किया जाता है— "पर्याप्ति-जीव समासाः कायेन्द्रिय मार्गण योनिलीनाः, एक-द्वि-त्रि- चतुःपंचेन्द्रिय-सूक्ष्म बादरपर्याप्तापर्याप्तभेदानां तत्र प्रतिपादितत्वात् । उच्छ्वास-भाषा-मनोबल प्राणाश्च तत्रैव निलीनाः, तेषां पर्याप्तिकार्यत्वात् । कायबल - प्राणोऽपि योगमार्गणातो निर्गतः, बललक्षणत्वाद्योगस्य" ( पु०२, पृ० ४१४) । इत्यादि । इसका जी० का० की इस गाथा से मिलान कीजिये -- Jain Education International इंदिय-काये लीणा जीवा पज्जत्ति-आण भास-मणो । जोगे काओ णाणे अक्खा गदि मग्गणे आऊ ।। -- गाथा ५ उपसंहार गोम्मटसार के रचयिता आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती सिद्धान्त के मर्मज्ञ रहे हैं । षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / ३१९ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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