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________________ नगम अनुयोगद्वार में गुणस्थान निरपेक्ष सामान्य से गति-इन्द्रियादि चौदह मार्गणाओं में पथाक्रम से जीवों की संख्या की प्ररूपणा हुई है । (पु०७, पृ० २४४-९८) जीवकाण्ड में जो उस संख्या की प्ररूपणा हुई है वह सम्भवतः ष० ख० के उक्त द्रव्यप्रमाणानुगम अनुयोगद्वार के आधार से ही की गई है। वहाँ उपशामकों और क्षपकों की संख्या के विषय में जो मतभेद प्रकट किया गया है (गाथा ६२५) वह धवला टीका के अनुसार है । इन मतभेदों को धवलाकार ने उत्तरप्रतिपत्ति और दक्षिणप्रतिपत्ति के रूप में दिखलाया है । (देखिये पु० ३, पृ० ६३-६४ व १७-१००) ___ जीवकाण्ड में समस्त संयतों, अप्रमत्तसंयतों (६२४ पू०) और प्रमत्तसंयतों (६२४ उत्तरार्ध) की जो संख्या निर्दिष्ट की गई है वह दक्षिणप्रतिपत्ति के अनुसार है। उत्तर प्रतिपत्ति के अनुसार वहां उनकी संख्या का कुछ उल्लेख नहीं किया गया है, जबकि धवला में स्पष्टतया उसका उल्लेख हुआ है (पु० ३, पृ० ६६)। इस सम्बन्ध में धवला में यह गाथा उद्धृत की गई है सत्तावी अट्ठता छण्णवमज्झा य संजदा सव्वे ।। निगभजिदा विगगुणिदापमत्तरासी पमत्ता दु॥ पु० ३, पृ. ६ इसके उत्तरार्ध में परिवर्तन कर उसे जी० का० में इस प्रकार आत्मसात् किया गया है सत्तादी अट्ठता छण्णवममा य संजदा सव्वे । अंजलिमौलियहत्थो तिरयणसुद्धे णमंसामि ॥६३५।। उत्तरप्रतिपत्ति के अनुसार उनकी संख्या का निर्देश करते हुए धवला में जो गाथा उद्धृत की गई है वह इस प्रकार है छक्कादी छक्कंता छण्णवमज्झा य संजदा सव्वे । तिगभजिदा विगगुणिदापमत्त रासी पमत्ता दु ॥ --धवला पु० ३, पृ० १०१ धवला में वहां प्रसंगवश जो गाथाएँ उद्धृत की गई हैं वे कुछ पाठभेद के साथ जीवकाण्ड में आत्मसात् कर ली गई हैं।' जीवकाण्ड में यह संख्या की प्ररूपणा इसके पूर्व प्रथम गुणस्थान' अधिकार में की जा सकती थी, जैसी कि प्रत्येक मार्गणा में उसकी प्ररूपणा की गई है । पर उसकी प्ररूपणा वहाँ न करके पुण्य-पाप के प्रसंग से सम्यक्त्व मार्गणा में की गई है। यह भी स्मरणीय है कि गोम्मटसार में पूर्ववर्ती ग्रन्थों से कितनी ही गाथाओं को लेकर उन्हें ग्रन्थ का अंग बनाया गया है और वहाँ ग्रन्थ कार अथवा 'उक्तं च' आदि के रूप में किसी प्रकार की सूचना नहीं की गई है। इसके विपरीत सर्वार्थसिद्धि , तत्त्वार्थवातिक और धवला आदि प्रमाण के रूप में अथवा विषय के विशदीकरण के लिए ग्रन्थान्तरों से गाथा व श्लोक आदि को उद्धृत करते हुए प्रायः ग्रन्थ आदि का कुछ न कुछ संकेत अवश्य किया गया है । १. धवला पु० ३, पृ० ६०-१८ (गा० ४१-४३,४५,४८ व ५१) और जीवकाण्ड गाथा ६२४-२८ और ६३२ षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / ३१७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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