SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 365
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ है। साथ ही, एक ही शरीर में प्रमुख वर्ण के साथ जो अन्य वर्ण रहते हैं उनके अल्पबहुत्व को भी दिखलाया गया है।" ___जीवकाण्ड में पूर्वोक्त निर्देशादि १६ अनुयोगद्वारों में दूसरा 'वर्ण' अनुयोगद्वार है । उस. में लगभग १० ख० के लेश्या अनुयोगद्वार के ही समान द्रव्यलेश्या की प्ररूपणा की गई है (४६३-६७)। १६. उपर्युक्त कृति-वेदनादि २४ अनुयोगद्वारों में १४वाँ 'लेश्याकर्म' अनुयोगद्वार है । इसमें क्रम से कृष्णादि लेश्यावाले जीवों की प्रवृत्ति (कर्म या कार्य) को दिखलाते हुए 'उक्तं च' इस सूचना के साथ ६ गाथाओं को उद्धृत किया गया है। ये वे ही गाथाएँ हैं जिनका उल्लेख पीछे सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार के अन्तर्गत लेश्यामार्गणा के प्रसंग में किया जा चुका है तथा जो जीवकाण्ड के छठे 'लक्ष ण' अधिकार में ५०८-१६ गाथांकों में उपलब्ध होती हैं। २०. लेश्यापरिणाम नामक १५वें अनुयोगद्वार में कौन-सी लेश्या षट्स्थानपतित संक्लेश अथवा विशुद्धि के वश किस प्रकार से स्वस्थान और परस्थान में परिणत होती है, इसे धवला में स्पष्ट किया गया है। जीवकाण्ड में तीसरे 'परिणाम' अधिकार के द्वारा लेश्या के परिणमन की जो व्याख्या हुई है वह धवला की उपर्युक्त प्ररूपणा के ही समान है। २१. ष० ख० के दूसरे क्षुद्र कबन्ध खण्ड के अन्तर्गत ११ अनुयोगद्वारों में ५वाँ द्रव्यप्रमाणानुगम है। उसमें यया क्रम से गति-इन्द्रियादि चौदह मार्गणाओं में जीवों की संख्या दिखलायी गयी है। वहाँ लेश्यामार्गणा के प्रसंग में कृष्णादि छह लेश्यावाले जीवों की संख्या की विवेचना की गई है। जीवकाण्ड में पूर्वनिर्दिष्ट १६ अधिकारों में १०वां संख्या अधिकार है। उसमें प्रायः धवला के ही समान कृष्णादि छह लेश्यावाले जीवों की संख्या को दिखलाया गया है। २२. षट्खण्डागम के उसी दूसरे खण्ड में जो छठा क्षेत्रानुगम अनुयोगद्वार है उसमें लेश्यामार्गणा के प्रसंग में उक्त छहों लेश्यावाले जीवों के वर्तमान निवासरूप क्षेत्र की प्ररूपणा - जीवकाण्ड के पूर्वनिर्दिष्ट 'क्षेत्र' अधिकार में उन छह लेश्यावाले जीवों के क्षेत्र की प्ररूपणा धवला के ही समान है । (गा० ५४२-४४) २३. षट्खण्डागम में इसी खण्ड के ७वें स्पर्शनानुगम, दूसरे 'एक जीव की अपेक्षा कालानगम' और तीसरे 'एक जीव की अपेक्षा अन्तरानुगम' इन तीन अनुयोगद्वारों में जिस प्रकार से छह लेश्यायुक्त जीवों के क्रम से स्पर्श, काल और अन्तर की प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार १. पु० १६, पृ० ४८४-८६ २. पु० १६, पृ० ४६०-६२ ३. वही, ४६३-६७ ४. गा० ४६८-५०२ ५. सूत्र २,५,१४७-५४ (पु० ७, पृ० २६२-६४) ६. गाथा ५३६-४१ ७. सूत्र २,६,१०१-६ (पु० ७) षट्खण्डागम की अन्य प्रन्थों से तुलना / ३११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy