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________________ चौदह मार्गणामों का निरूपण किया गया है।' विशेषता यह रही है कि ष० ख० में जहाँ “ओघेण अस्थि मिच्छा इट्टी" आदि सूत्रों के द्वारा पृथक्-पृथक् क्रम से मिथ्यादृष्टि आदि चौदह गुणस्थानों के अस्तित्वमात्र की सूचना है वहाँ जीवकाण्ड में प्रथमतः दो (९-१०) गाथाओं में उन चौदह गुणस्थानों के नामों का निर्देश किया गया है और तत्पश्चात् यथाक्रम से उनके स्वरूप का निरूपण है। यह यहां विशेष ध्यान देने योग्य है कि मूल षट्खण्डागम सूत्रों में केवल नामोल्लेखपूर्वक मिथ्यादृष्टि व सासादन सम्यग्दृष्टि आदि चौदह गुणस्थानवी जीवों के सत्त्व को प्रकट किया गया है। उन सत्रों की यथाक्रम से व्याख्या करते हुए धवलाकार ने उनके स्वरूप आदि को स्पष्ट किया है । इस स्पष्टीकरण में उन्होंने प्रत्येक गुणस्थान के प्रसंग में प्रमाणस्वरूप जो प्राचीन गाथाएँ उद्धत की हैं वे प्रायः सब ही बिना किसी प्रकार की सूचना के यथा प्रसंग जीवकाण्ड में उपलब्ध होती हैं, यह आगे धवला में उद्धृत गाथाओं की सूची के देखने से स्पष्ट हो जावेगा। ३. जीवकाण्ड में अयोगकेवली गुणस्थान का स्वरूप दिखलाकर तत्पश्चात गणश्रेणिनिर्जरा के क्रम को प्रकट करते हुए "सम्मत्तुप्पत्तीये" आदि जिन दो (६६-६७) गाथाओं का उपयोग किया गया है वे षट्खण्डागम के चौथे वेदना खण्ड के अन्तर्गत 'वेदनाभाव विधान' अनुयोगद्वार की प्रथम चूलिका में सूत्र के रूप में अवस्थित हैं।' ४. जी०का० में गुणस्थान प्ररूपणा के अनन्तर जीवसमासों का विवेचन किया गया है। वहाँ जीवसमास के ये चौदह भेद निर्दिष्ट किये गये हैं—बादर व सूक्ष्म एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा संज्ञी व असंज्ञी पंचेन्द्रिय; ये सातों पर्याप्त भी होते हैं और अपर्याप्त भी होते हैं । इस प्रकार इन चौदह जीवभेदों को वहाँ जीवसमास कहा गया है (गाथा ७२)। जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, ष० ख० में 'जीवसमास' शब्द से गुणस्थानों की विवक्षा रही है। फिर भी जी० का० में चौदह जीवसमास के रूप में जिन चौदह जीवभेदों का उल्लेख किया गया है उनका निर्देश ष० ख० में सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार के अन्तर्गत इन्द्रिय व काय मार्गणाओं के प्रसंग में किया गया है। ___ जी० का० में यद्यपि 'जीवसमास' अधिकार में जीवसमास के रूप में उपर्युक्त चौदह जीवभेद अभीष्ट रहे हैं फिर भी ष० ख० में जिस प्रकार 'जीवसमास' शब्द से गुणस्थानों की विवक्षा रही है उसी प्रकार जी० का० में भी गुणस्थानों का उल्लेख 'जीवसमास' शब्द से १. जीवकाण्ड में पूर्व प्रतिज्ञात बीस प्ररूपणाओं में प्रथमतः गुणस्थानों के स्वरूप को दिखा कर (गा० ८-६६) आगे जीवसमास (७०-११६), पर्याप्ति (११७-२७), प्राण (१२८३२) और संज्ञा (१३३-३८) इन प्ररूपणाओं का वर्णन है। तत्पश्चात् यथाक्रम से गति इन्द्रियादि चौदह मार्गणाओं का विचार किया गया है। (गा० १३६-६७०) २. १० ख० पु० १२, पृ० ७८ ३. जीवाः समस्यन्ते एष्विति जीवसमासाः । चतुर्दश च ते जीवसमासाश्च चतुर्दशजीवसमासाः, ___ तेषां चतुर्दशानां जीवसमासानां चतुर्दशगुणस्थानानामित्यर्थः ।-धवला पु० १, पृ०१३१ ४. १० ख० सूत्र १,१, ३४-३५ (आगे सूत्र १,१,३६-४१ में इनके अवान्तर भेदों का भी निर्देश किया गया है)। प्र० १ षट्खण्डागम को अन्य प्रन्थों से तुलना / ३०३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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