SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 347
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सत्प्ररूपणादि आठ अनुयोगद्वारों और गति-इन्द्रियादि मार्गणाओं के आश्रय से जीवसमासो के जानने की प्रेरणा की गई है, जो इस 'जीवसमास' ग्रन्थ की सार्थकता को प्रकट करती है। उपर्युक्त दोनों गाथाओं के अभिप्राय में पर्याप्त समानता दिखती है। विशेषता यह है कि 'जीवसमास' के प्रारम्भ में ग्रन्थकार द्वारा प्रस्तुत गाथा में जैसी सूचना की गई है तदनुसार ही आगे ग्रन्थ में यथाक्रम से निक्षेप, निरुक्ति आदि छह व विशेषकर सत्प्ररूपणादि आठ अनुयोगद्वारों तथा गति आदि चौदह मार्गणाओं के आश्रय से जीवसमासों की प्ररूपणा की गई है। इस प्रकार उपर्युक्त गाथा जो वहां प्रारम्भ में दी गयी है वह सर्वथा उचित व संगत है। किन्तु पंचसंग्रहगत वह गाथा 'जीवसमास' नामक उसके प्रथम प्रकरण के अन्त में दी गई है और उसके द्वारा यह अभिप्राय प्रकट किया गया है कि जो निक्षेप, एकार्थ, नय, प्रमाण, निरुक्ति और अनुयोगद्वारों के आश्रय मे बीस भेदों का मार्गण करता है वह जीव के सद्भाव को जानता है। इस प्रकार उस गाथा में जिन निक्षेप व एकार्थ आदि का निर्देश किया गया है उन सब की चर्चा यथाक्रम से इस प्रकरण में की जानी चाहिए थी, पर उनका विवेचन वहाँ कहीं भी नहीं किया गया है। ___इस परिस्थिति में 'जीवसमास' ग्रन्थ के प्रारम्भ में प्रयुक्त उस गाथा की जैसी संगति रही है वैसी पंचसंग्रहगत उस गाथा की संगति नहीं रही। इससे यही प्रतीत होता है कि पंचसंग्रहकार ने 'जीवसमास' की उस गाथा को हृदयंगम कर इस गाथा को रचा है। इस प्रकार इस पंचसंग्रह अन्य से वह जीवसमास ग्रन्थ प्राचीन सिद्ध होता है। इसके अतिरिक्त यह भी यहाँ ध्यातव्य है कि प्रस्तुत पंचसंग्रह में पूर्वनिर्दिष्ट क्रम से गुणस्थान व जीवसमास आदि रूप उन बीस प्ररूपणाओं का वर्णन करके प्रसंग के अन्त में उस गाथा को प्रस्तुत किया गया है। जैसा कि उस गाथा में संकेत किया गया है, यदि संग्रहकार चाहते तो उसके आगे भी वहाँ गाथोक्त निक्षेप व एकार्थ आदि का विचार कर सकते थे । पर आगे भी वहां उनकी कुछ चर्चा न करके पूर्व प्ररूपित लेश्याओं की विशेष प्ररूपणा की गई है (१८३-६२)। पश्चात् सम्यग्दृष्टि जीव कहाँ उत्पन्न नहीं होते हैं, इसे स्पष्ट करते हुए मन: ज्ञान व परिहारविशद्धिसंयम आदि जो एक साथ नहीं रहते हैं उनका उल्लेख किया गया है (१६३-६४)। आगे सामायिक-छेदोपस्थापनादि संयमविशेष किन गुणस्थानों में रहते हैं, इसका निर्देश करते हुए केवलिसमुद्घात (१९६-२००), सम्यक्त्व व अणुव्रत-महावतों की प्राप्ति का नियम एवं दर्शनमोह के क्षय-उपशम आदि के विषय में विचार किया गया है (२०१६)। यह विवेचन यहाँ अप्रासंगिक व क्रमशून्य रहा है। इस सबकी प्ररूपणा वहाँ पूर्वप्ररूपित उस मार्गणा के प्रसंग में की जा सकती थी। ____ इस परिस्थिति को देखते हुए यही फलित होता है कि धवलाकार वीरसेन स्वामी के समक्ष प्रस्तुत पंचसंग्रह इस रूप में नहीं रहा । यथाप्रसंग धवला में उद्धृत जो सैकड़ों गाथाएँ प्रस्तुत पंचसंग्रह और गोम्मटसार में उपलब्ध होती हैं उनका, जैसा कि पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है, इस पंचसंग्रह व गोम्मटसार से उद्धृत करना सम्भव नहीं है । किन्तु धवला से पूर्व जो वैसे कुछ प्रकरण विशेष अथवा ग्रन्थविशेष रहे हैं उनमें उन गाथाओं को वहाँ उद्धृत किया जाना चाहिए। जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, धवलाकार के समक्ष विशाल आगमसाहित्य रहा है व पर्ययज्ञा षटलण्डागम की अन्य प्रन्थों से तुलना / २६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy