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________________ क्या प्रस्तुत पंचसंग्रह धवलाकार के समक्ष रहा है ? उपर्युक्त स्थिति को देखते हुए स्वभावतः यह प्रश्न उठता है कि ऐसी प्रचुर गाथाओं को धवलाकार ने क्या प्रस्तुत पंचसंग्रह से लेकर अपनी धवला टीका में उद्धृत किया है ? इस पर विचार करते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि ये गाथाएँ प्रस्तुत पंचसंग्रह से लेकर धवला में नहीं उद्धत की गई हैं। कारण इसका यह है कि धवलाकार के समक्ष प्रस्तुत पंचसंग्रह इस रूप में रहा हो, इसकी सम्भावना नहीं है । यदि वह उनके समक्ष रहा होता तो जैसे उन्होंने आचारांग (मूलाचार), कर्मप्रवाद, कसाय पाहुड, तच्चट्ठ (तत्त्वार्थसूत्र), तत्त्वार्थभाष्य (तस्वार्थ वार्तिक), पंचत्थिपाहुड, पेज्जदोस और सम्मइसुत्त आदि अनेक प्राचीन ग्रन्थों के नाम निर्देशपूर्वक उनके अन्तर्गत वाक्यों को यथाप्रसंग प्रमाण के रूप में धवला में उद्धृत किया है वैसे ही वे प्रस्तुत पंचसंग्रह से इतनी अधिक गाथाओं को धवला में उद्धत करते हुए किसी-न-किसी रूप में उसका भी उल्लेख अवश्य करते। पर उन्होंने उसका कहीं उल्लेख नहीं किया। इससे यही प्रतीत होता है कि उनके समक्ष इस रूप में पंचसंग्रह नहीं रहा है। यह सम्भव है कि प्रस्तुत पंचसंग्रह में जो पूर्वोक्त जीवसमास आदि पांच अधिकार विशेष हैं वे पृथक्-पृथक् मूल रूप में धवलाकार के समक्ष रहे हों व उन्होंने उनसे प्रसंगानुसार उपयुक्त गाथाओं को लेकर उन्हें धवला में उद्धृत किया हो । पश्चात् संग्रहकार ने उन मूल प्रकरणग्रन्थों में विवक्षित विषय के स्पष्टीकरणार्थ आवश्यकतानुसार भाष्यात्मक या विवरणात्मक ओं को रंचकर व उन्हें यथास्थान उन प्रकरण-ग्रन्थों में योजित कर उन पांचों प्रकरणों का प्रस्तुत 'पंचसंग्रह' के रूप में संग्रह कर दिया हो । दूसरी एक सम्भावना यह भी है कि भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् गौतमादि गणधरों व अंग-पूर्दो के समस्त व एक देश के धारक अन्य आचार्यों की अविच्छिन्न परम्परा से जो श्रुत का-विशेषकर गाथात्मक श्रुत का-प्रवाह दीर्घकाल तक मौखिक रूप में चलता रहा है उसका कुछ अंश धवलाकार वीरसेन स्वामी के भी कण्ठगत रहा हो और उन्होंने अपनी स्मृति के प्राधार पर उससे उन प्रचुर गाथाओं को प्रसंगानुसार अपनी धवला टीका में जहां-तहां उद्धृत किया हो। अन्य एक सम्भावना यह भी है कि धवलाकार के समक्ष ऐसा कोई गाथाबद्ध प्राचीन ग्रन्थ रहना चाहिए जिसमें विविध विषयों से सम्बद्ध प्रचुर गाथाओं का संग्रह रहा हो और जो वर्तमान में उपलब्ध न हो। इसका कारण यह है कि धवला में ऐसी अन्य भी पचासों गाथाएँ उद्धृत की गई हैं जो वर्तमान में उपलब्ध किसी भी प्राचीन ग्रन्थ में नहीं प्राप्त होती हैं । जैसे--- १. सिद्धों में विद्यमान केवलज्ञानादि गुण किस-किस कर्म के क्षय से उत्पन्न होते हैं, इसकी प्ररूपक नौ गाथाएँ । (पु० ७, पृ० १४-१५) २. क्रम से नेगमादि नयों के आश्रय से 'नारक' नाम की प्ररूपक छह गाथाएँ । यहाँ संग्रह नय की अपेक्षा 'नारक' किसे कहा जाता है, इसकी सूचक गाथा सम्भवतः प्रतियों में स्खलित हो गई है । देखिए पु०७, पृ० २८-२६ । (इसके पूर्व इसी पु०७ में पृ०६ पर भी तीन गाथाएँ द्रष्टव्य हैं) ३. मार्गणास्थानों में बन्ध और बन्धविधि आवि पाँच अनुयोगद्वारों की निर्देशक गापा के साथ बन्ध पूर्व में है या उबय पूर्व में, इत्यादि की सूचक अन्य तीन गाथाएँ। देखिए पु०८, २९. / बदबण्डाम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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