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________________ पूर्णतया समानता है । विशेष इतना है कि ष० ख० में जहाँ उसके दूसरे भेद का उल्लेख गुणप्रत्ययिक के नाम से किया गया है वहाँ नन्दिसूत्र में उसका निर्देश प्रथमतः क्षायोपशमिक के नाम से और तत्पश्चात् प्रसंग का उपसंहार करते हुए गुणप्रत्ययिक के नाम से भी किया गया है । इसी प्रकार षट्खण्डागम में जहाँ उसके देशावधि आदि कुछ भेदों का निर्देश करते हुए उसे अनेक प्रकार का कहा गया है वहाँ नन्दिसूत्र में उसके निश्चित छह भेद निर्दिष्ट किये गये हैं । ० ख० में उसके जिन कुछ भेदों का निर्देश किया गया है, नन्दिसूत्र में निर्दिष्ट उसके वे छहों भेद समाविष्ट हैं । ० ख० में निर्दिष्ट देशावधि, परमावधि, सर्वावधि, अवस्थित, अनवस्थित, एक क्षेत्र और अनेक क्षेत्र इन अन्य भेदों का निर्देश नन्दिसूत्र में नहीं है । क्षायोपशमिक और गुणप्रत्ययिक इन दोनों में यह भेद समझना चाहिए कि क्षायोपशमिक जहाँ व्यापक है वहाँ गुणप्रत्ययिक व्याप्य है । कारण यह कि अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम विभंगज्ञान के स्वामी मिथ्यादृष्टियों और अवधिज्ञान के स्वामी सम्यग्दृष्टियों दोनों के होता है, परन्तु अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम की अपेक्षा रखनेवाला गुणप्रत्ययिक अवधिज्ञान सम्यग्दृष्टियों के ही होता है, मिध्यादृष्टियों के वह सम्भव नहीं है । 'गुण' शब्द से यहाँ सम्यक्त्व, अणुव्रत और महाव्रत अभिप्रेत हैं ।' नन्दिसूत्र में उस छह प्रकार के गुणप्रत्ययिकअवधिज्ञान के स्वामी के रूप में जो अनगार का निर्देश है उसका भी यही अभिप्राय है । ५. षट्खण्डागम में अवधिज्ञान के जघन्य क्षेत्र को प्रकट करते हुए कहा गया है कि सूक्ष्म निगोद जीव की नियम से जितनी अवगाहना होती है उतने क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य अवधिज्ञान होता है । नन्दिसूत्र में भी यही कहा गया है कि तीन समयवर्ती सूक्ष्म निगोद जीव की जितनी जघन्य अवगाहना होती है उतना अवधिज्ञान का जधन्य क्षेत्र है । दोनों ग्रन्थों में इस अभिप्राय की सूचक जो गाथा उपलब्ध होती हैं उनमें बहुत कुछ समानता है । यथा ओगाहणा जहण्णा नियमा दु सुहुमणिगोवजीवस्स । जद्द ही तद्द ही अहणिया खेत्तदो ओही ॥ - ष० ख० गाथा सूत्र ३, पु० १३, पृ० ३०१ जावतिया तिसमयाहारगस्स सुहुमस्स पणगजीवस्स । ओगाहणा जहन्ना ओहीखेतं जहन्नं तु ॥ -- नन्दिसूत्र गाथा ४५, सूत्र २४ ० ख० के उस गाथासूत्र में यद्यपि 'तिसमयाहारगस्स' पद नहीं है, पर उसके अभिप्राय को व्यक्त करते हुए धवलाकार ने 'तदियसमयआहार तदियसमयतब्भवत्थस्स' ऐसा कहकर १. अणुव्रत - महाव्रतानि सम्यक्त्वाधिष्ठानानि गुणः कारणं यस्यावधिज्ञानस्य तद्गुणप्रत्ययकम् । - धवला पु० १३, पृ० २६१-६२ षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / २८१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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