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________________ निर्दिष्ट हैं— अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा । इनमें अवग्रह दो प्रकार का है - अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह | व्यंजनावग्रह चार प्रकार का है— श्रोत्रेन्द्रियव्यंजनावग्रह, घ्राणेन्द्रियव्यंजनावग्रह, जिह्वन्द्रियव्यंजनावग्रह और स्पर्शेन्द्रियव्यंजनावग्रह | अर्थावग्रह के ये छह भेद निर्दिष्ट किये गये हैं— श्रोत्रेन्द्रियअर्थावग्रह, चक्षुइन्द्रियअर्थावग्रह, घ्राणेन्द्रियअर्थावग्रह, जिह्नन्द्रियअर्थावग्रह, स्पर्शेन्द्रियअर्थावग्रह और नोइन्द्रियप्रर्थावग्रह । आगे इसी क्रम से ईहा, अवाय और धारणा इनमें से प्रत्येक के भी इन छह भेदों का उल्लेख पृथक्-पृथक् किया गया है ।' इस प्रकार इन दोनों ग्रन्थों में आवारक ज्ञानावरणीय के और आव्रियमाण ज्ञान के उपर्युक्त भेदों में पूर्णतया समानता देखी जाती है । प्ररूपणा का क्रम भी दोनों ग्रन्थों में समान है । षट्खण्डागम में आगे इसी प्रसंग में उस आभिनिबोधिक ज्ञानवरणीय के ४,२४,२८,३२,४८, १४४,१६८,१६२,२८८, ३३६ और ३८४ इन भेदों का ज्ञातव्य के रूप निर्देशमात्र है । " नन्दिसूत्र में षट्खण्डागम में निर्दिष्ट आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय के भेदों के समान आभिनिबोधिक ज्ञान के भेदों का कहीं भी उल्लेख नहीं है । ३. षट्खण्डागम में आगे 'उसी आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय कर्म की प्ररूपणा की जाती है' ऐसी सूचना करते हुए उक्त अवग्रहादि चार ज्ञानों के पृथक्-पृथक् समानार्थक शब्दों का यथाक्रम से निर्देश है । नन्दिसूत्र में भी अवग्रहादि चार के समानार्थक शब्दों का निर्देश पृथक्-पृथक् उसी प्रकार से किया गया है । तुलना के लिए दोनों ग्रन्थों में निर्दिष्ट समानार्थक शब्दों का उल्लेख यहाँ साथ-साथ किया जाता है (१) अवग्रह अवग्रह, अवदान, सान, अवलम्बना और मेधा । ( ष० ख० ५,५, ३७, पु० १३ ) अवग्रहणता, उपधारणता, श्रवणता, अवलम्बनता और मेधा । ( नन्दिसूत्र ५१ [२] ) (२) ईहा ईहा, ऊहा, अपोहा, मार्गणा, गवेषणा और मीमांसा । ( ष०ख० ५,५, ३८ ) आभोगनता, मार्गणता, गवेषणता, चिन्ता और विमर्श । ( नन्दिसूत्र ५२ [२]) (३) अवाय -- वाय, व्यवसाय, बुद्धि, विज्ञानी (विज्ञप्ति), आमुण्डा और प्रत्यामुण्डा । ( ष० ख० ५,५, ३९ ) अवार्तनता, प्रत्यावर्तनता, अपाय, बुद्धि और विज्ञान । ( नन्दिसूत्र ५३ [२]) (४) धारणा - धरणी, धारणा, स्थापना, कोष्ठा और प्रतिष्ठा । ( ष० ख० ५,५,४० ) धरणा, धारणा, स्थापना, प्रतिष्ठा और कोष्ठा । ( नन्दिसूत्र ५४ [२]) १. नन्दिसूत्र, पृ० ४८-५४ २. षट्खण्डागम सूत्र ५, ५.३५, (पु० १३) । इन भेदों का स्पष्टीकरण धवला में किया गया है । पृ० २३४-४१ Jain Education International पट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / २७६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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