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________________ विशेषता ___ इस प्रकार दोनों ग्रन्थों में की गई इस निक्षेपविषयक प्ररूपणा आदि के विषय में शब्द व अर्थ की अपेक्षा बहुत कुछ समानता के होने पर भी उनमें कुछ अपनी-अपनी विशेषता भी देखी जाती है । यथा-- १. षट्खण्डागम में जहाँ नामनिक्षेप के प्रसंग में उसके आधारभूत जीव व अजीव विषयक आठ भंगों का निर्देश है वहाँ अनुयोगद्वार में छह भंगों का ही निर्देश किया गया है। वहाँ 'जीवस्स च अजीवाणं च' और 'जीवाणं च अजीवस्स च' इन दो (६-७) भंगों का निर्देश नहीं किया गया। २. स्थापनानिक्षेप के प्रसंग में अनुयोगद्वार की अपेक्षा षट्खण्डागम में काष्ठ कर्मादि चार के साथ लेण्णकम्म, सेलकम्म, गिहकम्म, भित्तिकम्म, दंतकम्म और भेंडकम्म इन छह कर्मविशेषों का उल्लेख भी है। उधर अनुयोगद्वार में ष०ख० की अपेक्षा गंथिम, वेढिम, पूरिम और संघाइम इन क्रियाविशेषों का उल्लेख अधिक किया गया है। इसके अतिरिक्त इसी प्रसंग में षट्खण्डागम में जहाँ सामान्य से 'ठवणाए' इतना मात्र निर्देश किया गया है वहाँ अनुयोगद्वार में उस स्थापना के भेदभूत सद्भावस्थापना और असद्भावस्थापना को ग्रहण करके 'सम्भावठवणाए वा असब्भावठवणाए वा' ऐसा स्पष्ट कर दिया गया है। इसके अतिरिक्त ष० ख० की अपेक्षा अनुयोगद्वार में एक यह भी विशेषता रही है कि वहाँ 'नाम-ट्रवणाणं को पइविसेसो' ऐसा प्रश्न उटाकर उसके समाधान में 'णामं आवकहियं, ठवणा इत्तिरिया वा होज्जा आवकहिया वा' यह विशेष स्पष्ट किया गया है। ३. नोआगम-भावनिक्षेप के प्रसंग में दोनों ग्रन्थों में स्थित, जित, परिजित, नामसम और घोषसम इन शब्दों का समान रूप में उपयोग करने पर भी अनुयोगद्वार में ष०ख० की अपेक्षा 'अहीनाक्षर' आदि नौ शब्दों का उपयोग अधिक है। इसके अतिरिक्त प० ख० में जहाँ 'वायणोवगदं' है वहाँ अनुयोगद्वार में 'गुरु' के साथ 'गुरुवायणोवगयं' है। ___ष० ख० में उक्त 'स्थित-जित' आदि नो का निर्देश आगम के अर्थाधिकारों के रूप में किया गया है, साथ ही आगे के सूत्र में निर्दिष्ट वाचना व पृच्छना आदि को भागम-विषयक उपयोग कहा गया है। किन्तु अनुयोगद्वार में उक्त 'स्थित-जित' आदि का उल्लेख आगम के अर्थाधिकार रूप में नहीं हुआ है। वाचना-पृच्छना आदि का उल्लेख भी वहां आगमविषयक उपयोग के रूप १. १० ख० सूत्र ५१ (पु. ६) और अनु० सूत्र १० २. ष० ख० में गंथिम, वेढि [दि] म, पूरिम और संघादिम इन शब्दों का उपयोग तद्व्यति___रिक्त नोआगम द्रव्यकृति के प्रसंग (सूत्र ६५) में हुआ है। इनके अतिरिक्त वहाँ 'वाइम' व 'आहोदिम' आदि कुछ अन्य शब्द भी व्यवहृत हुए हैं। ३. १० ख० सूत्र ६५२ और अनुयोगद्वार सूत्र ११ (१० ख० में स्थापना के इन दो भेदों का उल्लेख मूल में कहीं भी नहीं किया गया है)। ४. अनु० सूत्र १२,२३,५५ और ४८० २६६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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