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________________ और कालत्रय सम्बन्धी अवस्थानरूप स्पर्शन की प्ररूपणा की गई है । (पु० ७) प्रज्ञापना में ३६ पदों के अन्तर्गत जो दूसरा 'स्थान' पद है उसमें एकेन्द्रियों (पृथिवीकायिक आदि), द्वीन्द्रियों, त्रीन्द्रियों, चतुरिन्द्रियों, पंचेन्द्रियों (नारक व तिर्यंच आदि) और सिद्ध जीवों के स्थानों की प्ररूपणा की गई है । यह बहुत विस्तृत है । विस्तार का कारण यह है कि वहाँ स्थानों के प्रसंग में ऐसे अनेक स्थानों को गिनाया गया है जो पर्याप्त नहीं हैं-उनसे भी वे अधिक सम्भव हैं । जैसे-बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तकों के स्थानों का निर्देश करते हुए रत्न-शर्करादि आठ पृथिवियों का नामोल्लेख, अधोलोक, पातालों, भवनों, भवनप्रस्तारों, नरकों और नारकश्रेणियों आदि का उल्लेख (सूत्र १४८) । पर इतने स्थानों से भी उनके वे अधिक सम्भव हैं, ऐसी अवस्था में उनकी सीमा का निर्धारण करना संगत नहीं प्रतीत होता । इसके अतिरिक्त यह सूत्रग्रन्थ है और सूत्र का लक्षण है-- अप्पग्गंथमहत्थं बत्तीसादोसविरहियं जं च ।। लक्खणजुत्तं सुत्तं अट्ठहि गुणेहि उववेयं ॥ -आव०नि०८८० इस सूत्रलक्षण के अनुसार सूत्र ग्रन्थ को ग्रन्थप्रमाण से हीन होकर विस्तीर्ण अर्थ से गर्भित होना चाहिए। वह बत्तीस दोषों से रहित होकर लक्षण से युक्त और आठ गुण से सम्पन्न होता है। इस सूत्र के लक्षण को देखते हुए यहाँ इतना विस्तार अपेक्षित नहीं था, फिर जो विस्तार किया भी गया है वह अपने आप में अपूर्ण भी रह गया है। __ आगे सामान्य नारकियों के और फिर विशेष रूप में क्रम से रत्नप्रभादि सातो पृथिवियों के नारकियों के स्थानों की पथक-पृथक चर्चा है जिसमें उनकी बीभत्सता के प्रकट करने में पुनरुक्ति अधिक हुई है । (सूत्र १६८-७४) इसी प्रकार का विस्तार वहाँ आगे भवनवासी और वानव्यन्तर देवों के स्थानों की भी प्ररूपणा में हुआ है। (सूत्र १७७-६४) अब तुलनात्मक दृष्टि से ष० ख० में की गई इस स्थानप्ररूपणा पर विचार कीजिये (१) वहाँ प्रश्नोत्तरपूर्वक यह कहा गया है कि बादर पृथिवीकायिकों, अप्कायिकों, तेजस्कायिकों, वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीरियों और उन सब अपर्याप्तों का स्थान स्वस्थान की अपेक्षा लोक का असंख्यातवाँ भाग तथा समुद्घात और उपपाद की अपेक्षा सर्वलोक है । (सूत्र २,६,३४-३७ पु० ७) बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर अप्कायिक पर्याप्त, बादर तेजस्कायिक पर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त जीवों का क्षेत्र स्वस्थान, समुद्घात और उपपाद की अपेक्षा लोक का असंख्यातवाँ भाग है ।' (सूत्र २,६,३८-३६) ___ इस प्रकार ष० ख० में उपर्युक्त जीवों के क्षेत्र की प्ररूपणा छह (३४-३६) सूत्रों में ही कर दी गई है। इसमें प्रज्ञापना में निर्दिष्ट वे सब स्थान तो गभित हैं ही, साथ ही प्रज्ञापना में अनिर्दिष्ट जो अन्यत्र उनके स्थान सम्भव हैं वे भी उसमें आ जाते हैं। इस प्रकार विभिन्न मार्गणाओं में जिन जीवों का क्षेत्र समान है उन सबके क्षेत्र की प्ररूपणा ष० ख० में एक साथ कर दी गई है। १. पागे सूत्र २,७,७२-८१ भी द्रष्टव्य हैं । षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / २५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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