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________________ (६) "इमाओ संगहणिगाओ" इस सूचना के साथ आगे गाथा २१५-१६ को गया है । (सूत्र १५१२) । ७. प्रस्तुत दोनों ग्रन्थों की रचना प्रायः प्रश्नोत्तर पद्धति के अनुसार हुई है पर ष०ख० में जहाँ यह प्रश्नोत्तर की पद्धति सर्वत्र समान रही है वहाँ प्रज्ञापना में उस की पद्धति में एकरूपता नहीं रही है । जैसे "ओघेण मिच्छा इट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया ? अनंता ।" - ष०ख० सूत्र १,२, २ ( पु० ३ ) इस प्रकार षट्खण्डागम में सामान्य से प्रश्न करके उसी सूत्र में उसका उत्तर भी दे दिया गया है । यह अवश्य है कि वहाँ 'अनन्त' के रूप में जो उत्तर दिया गया है उसे स्पष्ट करने के लिए आगे तीन सूत्र ( १, २, ३ - ५ ) और रचे गए हैं । यही पद्धति प्रायः षट्खण्डागम में सर्वत्र रही है । कहीं एक ही प्रश्न के समाधान में वहाँ आवश्यकतानुसार अनेक सूत्र भी रचे गये हैं जैसे--- "सामित्तेण उक्कस्सपदे णाणावरणीयवेयणा दव्वदो उक्कस्सिया कस्स ?" - सूत्र ४, २, ४, ६ ( पु० १० ) ज्ञानावरणीय के उत्कृष्ट द्रव्यवेदनाविषयक इस प्रश्न के उत्तर में वहाँ उस ज्ञानावरणीय की उत्कृष्ट द्रव्यवेदना के स्वामी गुणितकर्माशिक के विविध लक्षणों से गर्भित छब्बीस सूत्र (४,२, ४, ७ - ३२) रचे गये हैं । यही स्थिति ज्ञानावरणीय के जघन्य द्रव्यवेदनाविषयक प्रश्न के उत्तर की भी रही है। वहीं पृच्छासूत्र (४,२, ४, ४८ ) के समाधान में क्षपित कर्माशिक के लक्षणों से गर्भित २७ सूत्र (४, २, ४, ४६-७५) रचे गये हैं । विशेष इतना है कि कहीं-कहीं षट्खण्डागम में प्रश्नोत्तर के बिना भी विवक्षित विषय का विवेचन किया गया है । जैसेउसके प्रथम खण्ड के अन्तर्गत आठ अनुयोगद्वारों में से प्रथम सत्प्ररूपणा नामक अनुयोगद्वार में (०१) । उद्धृत किया यह सब होते हुए भी वहाँ प्रश्नोत्तर पद्धति के स्वरूप में भेद नहीं हुआ है । प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना के पूर्व व उस समय भी साधु-संघ में जो तत्त्व का व्याख्यान हुआ करता था उसमें यथावसर शिष्यों के द्वारा प्रश्न और आचार्य अथवा उपाध्याय के द्वारा उनका उत्तर दिया जाता था । इसी पद्धति पर प्रा० भूतबलि के द्वारा प्रस्तुत षट्खण्डागम की रचना की गई है । इसमें उन्होंने आचार्यं धरसेन से प्राप्त महाकमंप्रकृतिप्राभृत के ज्ञान को पूर्णतया सुरक्षित रखा है । परन्तु प्रज्ञापना में उस प्रश्नोत्तर की पद्धति में एकरूपता नहीं रही है । जैसे— (१) उसके प्रथम 'प्रज्ञापना' पद को ही ले लें । वहाँ सूत्र ३ - ०१ तक " से किं तं पण्णवणा, सेकितं अजीवपण्णवणा" इत्यादि प्रकार से सामान्यरूप में प्रश्न उठाया गया है और तदनुसार ही उत्तर दिया गया है, वहाँ विशेषरूप में गौतम के द्वारा प्रश्न और भगवान् महावीर के द्वारा उत्तर की अपेक्षा नहीं की गई है । (२) आगे वहीं पर सूत्र ८२ में सामान्य से प्रश्न इस प्रकार किया गया है - "से कि तं आसालिया ? कहि णं भंते ! आसालिया सम्मुच्छत्ति ?" इसका उत्तर 'गोयमा !' इस प्रकार से गौतम को सम्बोधित करते हुए दिया गया है व अन्त में उसे समाप्त करते हुए यह कह दिया गया है - " से तं आसालिया ।" इस प्रकार से यहाँ प्रथमतः भगवान् महावीर को सम्बोधित न करके सामान्य से ही २४६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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