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________________ होनाधिकता हुई है। ____ आगे इन दोनों ग्रन्थों में जितने स्थान उस अल्पबहुत्व के विषय में समान हैं उसका निर्देश किया जाता हैसमान स्थान ष० ख० प्रज्ञापना १६ सातवीं पृथिवी से सौ० कल्प की देवियों तक १६-३४ १२-२७ ४ वानव्यन्तर देवों से ज्योतिष देवियों तक ४०-४३ ३८-४१ २७ चतुरिन्द्रिय पर्याप्त से सूक्ष्मवायु पर्याप्त ४४-७० ४५-७१ ४७ स्थान इस तरह समस्त समान स्थान सेंतालीस हुए। इतने स्थानों में यथाक्रम से दोनों ही प्रन्थों में उस अल्पबहुत्व की प्ररूपणा समान रूप में की गई है। इस प्रकार १० ख० में जहाँ उस अल्पबहुत्व की प्ररूपणा ७८ स्थानों में की गई है वहाँ प्रज्ञापना में उसकी प्ररूपणा कुछ हीनाधिकता के साथ ६८ स्थानों में हुई है । विशेषता प्रज्ञापना में इस स्थानवृद्धि का कारण यह है कि वहाँ अच्युत (८), आरण (E), प्राणत (१०) और आनत (११) इन चार स्थानों में पृथक्-पृथक् उस अल्पबहुत्व का उल्लेख किया गया है, जबकि ष० ख० में उसका उल्लेख आरण-अच्युत (१७) और आनत-प्राणत (१८) इन दो स्थानों में किया गया है। ____ इसी प्रकार प्रज्ञापना में खगचर, स्थलचर और जलचर जीवों में पृथक्-पृथक् पुरुष, योनिमती और नपुंसक के भेद से उसका उल्लेख है। (३२-३७ व ४२-४४) ___ष० ख० में इन ६ स्थानों का उल्लेख पृथक् से नहीं किया गया है। वहाँ मार्गणाश्रित जीव भेदों की प्ररूपणा में कहीं खगचर, स्थलचर और जलचर इन तीन भेदों का उल्लेख नहीं किया गया है। पर प्रसंगवश जलचर स्थलचर और खगचर इन तीन प्रकार के जीवों का निर्देश वहाँ वेदनाकाल-विधान में काल की अपेक्षा उत्कृष्ट ज्ञानावरणीयवेदना के प्रसंग में अवश्य किया गया है। प्रज्ञापना में आगे सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त (७२), पर्याप्त (७३), अभवसिद्धिक (७४), परिपतित सम्यक्त्वी (७५), तथा बादर पर्याप्त सामान्य (७८), बादर अपर्याप्त सामान्य (८०), बादर सामान्य (८१), सूक्ष्म अपर्याप्त सामान्य (८३), सूक्ष्म पर्याप्त सामान्य (८५), सूक्ष्म सामान्य (८६), भवसिद्धिक (८७), निगोदजीव सामान्य (८८), वनस्पति जीव सामान्य (८६), एकेन्द्रिय सामान्य (६०), तिथंच सामान्य (६१), मिथ्यादृष्टि (६२), अविरत (६३), सकषायी (६४), छद्मस्थ (६५), सयोगी (६६), संसारस्थ (६७) और सर्वजीव (१८) इन अल्पबहुत्व के स्थानों को वृद्धिगत किया गया है। इस प्रकार दोनों ग्रन्थों में 'महादण्डक' के प्रसंग में समस्त जीवों के आश्रय से उस अल्पबहुत्व की प्ररूपणा कुछ मतभेदों को छोड़कर प्रायः समान रूप में की गई है। ष० ख० १. ष०ख०, सूत्र ४,२,६,८ (पु० ११, पृ० ८८) पट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / २३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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