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________________ प्रसंग के अन्त में जीवसमास में वहाँ यह सूचना कर दी गई है कि आगे प्रकृत द्रव्यप्रमाण को अनुमानपूर्वक स्वयं जान लेना चाहिए। यथा एवं जे जे भावा जहिं जहि हुंति पंचसु गदीसु । ते ते अणुमज्जित्ता दव्वपमाणं नए धीरा ॥१६६॥ यही पद्धति वहाँ प्राय: आगे क्षेत्र ( १६८ - ८१ पू० ), स्पर्शन (१८१ उ०- २००), काल ( २०१-४२), अन्तर (२४३-६४ ), भाव ( २६५-७० ) और अल्पबहुत्व ( २७१ - ८४ ) की भी प्ररूपणा में अपनाई गई है । भावानुगम के प्रसंग में वहाँ औपशमिकादि पाँच भावों के साथ सांनिपातिक भाव को भी ग्रहण करके उसके छह भेद प्रकट किये गये हैं तथा आगे त० सूत्र ( २, ३-७ ) के समान उनके अवान्तर भेदों का भी उल्लेख किया गया है। धर्म, अधर्म, आकाश और काल को पारिणामिक भाव तथा स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणु को परिणामोदय से उत्पन्न होनेवाले कहा गया है । इस कथन के साथ भावानुगम अनुयोगद्वार को समाप्त कर दिया गया है (२६५-७०) । इसके पूर्व वहाँ कालानुगम के प्रसंग में एक और नाना जीवों की अपेक्षा प्रायु, कायस्थिति और गुणविभाग काल की प्ररूपणा कुछ विस्तार से की गई है । अन्त में वहाँ जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, सूक्ष्म कालविभाग को अनुमानपूर्वक जान लेने के लिए निपुणमतियों को सूचना कर दी गई है (२४० ) । इस प्रकार ष० ख० में जहाँ उक्त सत्प्ररूपणादि आठ अनुयोगद्वारों में प्रसंगप्राप्त विषय की प्ररूपणा विशदतापूर्वक विस्तार से की गई है वहाँ जीवसमास में उन्हीं अनुयोगद्वारों में प्रतिपाद्य विषय का विवेचन प्रायः संक्षेप में किया गया है । फिर भी कहीं-कहीं पर वहाँ अन्य प्रासंगिक विषयों का विवेचन ष० ख० की अपेक्षा अधिक हो गया है। यह पीछे द्रव्यप्रमाणुगम के प्रसंग में स्पष्ट किया ही जा चुका है । उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि 'जीवसमास' यह महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है जो अनेक विषयों की प्ररूपणा में प्रस्तुत षट्खण्डागम से समानता रखता हुआ कुछ विशेषता भी रखता है । इन दोनों ग्रन्थों के पूर्वापर कालवर्तित्व का निश्चय यद्यपि नहीं है, फिर भी ऐसा प्रतीत होता है कि उनमें किसी एक का प्रभाव दूसरे पर अवश्य रहा है, अन्यथा समान रूप में उस प्रकार की विषय विवेचन की पद्धति व प्रतिपाद्य की क्रमबद्ध प्ररूपणा सम्भव नहीं दिखती । ६. षट्खण्डागम और पण्णवणा (प्रज्ञापना) श्यामार्य विरचित प्रज्ञापना को चौथा उपांग माना जाता है । श्यामार्य का ग्रन्थकर्तृत्व व समय प्रायः अनिर्णीत है ।' वह एक आगमानुसारी ग्रन्थ है । 'महावीर जैन विद्यालय' से प्रकाशित उसके संस्करण में सर्वप्रथम पंचपरमेष्ठिनमस्कारात्म मंगलगाथा को कोष्ठक [ ] के भीतर रखा गया है ।" उसे कोष्ठक में रखने का कारण वहाँ टिप्पण में यह प्रकट किया गया १. गुजराती प्रस्तावना पृ० २२-२५ २. यह पंचपरमेष्ठि नमस्कारात्मक गाथासूत्र षट्खण्डागम के प्रारम्भ में मंगलगाथा के रूप में उपलब्ध होता है । धवलाकार ने उसे सकारण मंगलआदि छह का प्ररूपक बतलाया है । - धवला पु० १, पृ० ८ पर मंगलसूत्र की उत्थानिका । २२८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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