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________________ वहाँ 'जीवसमास' में वह गाथा के रूप में हुआ है । ३. षट्खण्डागम में आगे उस सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार में ओघ की अपेक्षा 'ओघेण अस्थि मिच्छाइट्ठी, सासणसम्माइट्ठी' इत्यादि के क्रम से पृथक्-पृथक् सूत्रों के द्वारा मिथ्यादृष्टि आदि चौदह गुणस्थानों का उल्लेख है। सूत्र १,१,६-२२ (पु०१) _ 'जीवसमास' में भी उसी प्रकार से सत्प्ररूपणा के प्रसंग में मिथ्यात्व आदि चौदह गुणस्थानों का उल्लेख किया गया है। (गाथा ७-६) ४. षट्खण्डागम में आगे उसी सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार में आदेश की अपेक्षा यथाक्रम से गति-इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओं में यथासम्भव गुणस्थानों के सद्भाव को दिखलाते हुए जीवों के स्वरूप आदि का विचार किया गया है। (सूत्र १,१,२४-१७७)। 'जीवसमास' में भी उसी प्रकार से आदेश की अपेक्षा उस सत्प्ररूपणा के अन्तर्गत अन्य प्रासंगिक विवेचन के साथ यथा योग्य जीवों के स्वरूप व भेद-प्रभेदादि का विचार किया गया है । जैसे-नरकगति के प्रसंग में सातों नरकों व धर्मावंशादि सातों पृथिवियों तथा मनुष्यगति के प्रसंग में कर्मभूमिज, भोगभूमिज, अन्तर्वीपज और आर्यम्लेच्छादि का विचार इत्यादि । (गाथा १०-८४) ष० ख० में वहाँ उन अवान्तर भेदों आदि का विस्तृत विवेचन नहीं किया गया है । उन सबकी विस्तृत प्ररूपणा यथाप्रसंग उसकी टीका धवला में की गई है। __ 'जीवसमास' की यह एक विशेषता ही रही है कि वहाँ संक्षेप में विस्तृत अर्थ की प्ररूपणा कर दी गई है। उदाहरण के रूप में दोनों ग्रन्थगत संज्ञी मार्गणा का यह प्रसंग द्रष्टव्य है “सण्णियाणुवादेण अत्थि सण्णी असण्णी । सण्णी मिच्छा इट्टिप्पहुडि जाव खीणकसायवीयरायछदुमत्था त्ति। असण्णी एइंदियप्पहुडि जाव असण्णिपंचिंदिया त्ति।" -ष०ख०, सूत्र १,१,१७२-७४ अस्सण्णि अमणचिदियंत सण्णी उ समण छउमत्था । णो सपिण णो असण्णी केवलणाणी उ विण्णेया ॥ -जीवसमास ८१ १० ख० के उपर्युक्त ३ सूत्रों में इतना मात्र कहा गया है कि संज्ञी जीव मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीणकषाय छद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं और असंज्ञी जीव एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक होते हैं। यह पूरा अभिप्राय 'जीवसमास' की उपर्युक्त गाथा के पूर्वार्ध में ही प्रकट कर दिया गया है। साथ ही वहाँ संज्ञी असंज्ञी जीवों के स्वरूप को भी प्रकट कर दिया गया है कि जो जीव मन से सहित होते हैं वे संज्ञी और जो उस मन से रहित होते हैं वे असंज्ञी कहलाते हैं। वहाँ 'छद्मस्थ' इतना मात्र कहने से मिथ्यादृष्टि आदि बारह गुणस्थानों का ग्रहण हो जाता है । उन गुणस्थानों के नामों का निर्देश दोनों ग्रन्थों में पूर्व में किया ही जा चुका है। केवली संज्ञी होते हैं कि असंज्ञी, इसे ष०ख० में स्पष्ट नहीं किया गया है । पर 'जीवसमास' की उपर्युक्त गाथा के उत्तरार्ध में यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि केवली न तो संज्ञी होते हैं और न ही असंज्ञी, क्योंकि वे मन से रहित हो चुके हैं । इसी प्रकार इसके पूर्व कायमार्गण के प्रसंग में ष० ख० में प्रसंगप्राप्त पृथिवीकाय आदि के भेदों, योनियों, कुलकोटियों एवं त्रसकायिकों के संस्थान व संहनन आदि का कुछ विचार नहीं २२४ / षट्सण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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