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________________ से उत्पन्न होता है। इसलिए उनके वह देव-नारकियों के समान सदा काल नहीं रहता है, उनके वह कदाचित् ही रहता है। इस प्रकार व्याख्याप्रज्ञप्तिदण्डकों में उसके अस्तित्व मात्र के अभिप्राय को लेकर तिर्यंच-मनुष्यों में वैक्रियिक शरीर का सद्भाव दिखलाया है।' ऊपर तत्त्वार्थवार्तिक में जीवस्थानगत जिस प्रसंग का उल्लेख किया गया है वह इस प्रकार है "ओरालियकायजोगो ओरालियमिस्सकायजोगो तिरिक्ख-मणुस्साणं । वेउव्वियकायजोगो वेउव्वियमिस्सकायजोगो देव-णेरइयाणं ।" -१० ख०, सूत्र १,१,५७-५८ (पु० १) ६. इसके पूर्व त० वा० में औपशमिक भाव के दो भेदों के प्ररूपक 'सम्यक्त्व-चारित्रे' सूत्र (२-३) की व्याख्या करते हुए औपशमिक सम्यक्त्व के स्वरूप के स्पष्टीकरण में कहा गया है कि अनन्तानुबन्धी चार और मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व एवं सम्यक्त्व ये तीन दर्शन मोहनीय, इन सात प्रकृतियों के उपशम से जो सम्यक्त्व उत्पन्न होता है उसका नाम औपशमिक सम्यक्त्व है। इस पर वहाँ यह पूछा गया है कि अनादि मिथ्यादृष्टि भव्य के कर्मोदय जनित कलुषता के होने पर उनका उपशम कैसे होता है ? इसके उत्तर में कहा गया है कि वह उनका उपशम उसके काललब्धि आदि कारणों की अपेक्षा से होता है। इस प्रसंग में वहाँ कर्मस्थिति रूप दूसरी काललब्धि को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति युक्त कर्मों के होने पर प्रथम सम्यक्त्व का लाभ नहीं होता है, किन्तु जब उनका बन्ध अन्तःकोडाकोड़ी प्रमाण स्थिति से युक्त होता है तथा विशुद्धि के वश उनके सत्त्व को भी जब जीव संख्यात हजार सागरोपमों से हीन अन्तःकोडाकोड़ी प्रमाण में स्थापित करता है तब वह प्रथम सम्यक्त्व के योग्य होता है । ___ यह प्रसंग पूर्णतया जीवस्थान की नौ चूलिकाओं में आठवीं 'सम्यक्त्वोपत्ति' चूलिका पर आधारित है, जो शब्दशः समान है। उसका मिलान इस रूप में किया जा सकता है "एवदिकालंटिदिएहि कम्मेहि सम्मत्तं ण लहदि । लभदि त्ति विभासा ! एदेसिं चेव सव्व कम्माणे जावे अंतो कोडाकोडिदिदि बंधदि तावे पढमसम्मतं लभदि । सो पुण पंचिदिओ सण्णी मिच्छाइट्ठी पज्जत्तो सव्वविसुद्धो। एदेसि चेव सव्वकम्माणं जाधे अंतोकोडाकोडिट्ठिदि वेदि संखेज्जेहि सागरोवमसहस्सेहि उणियं ताधे पढमसम्मत्तमुप्पादेदि ।” -----५०ख०, सूत्र १, ६-८,१-५ (पु० ६) "अपरा कर्मस्थितिका काललब्धिरुत्कृष्टस्थितिकेषु कर्मसु जघन्यस्थितिकेषु प्रथमसम्यक्स्वलाभो न भवति । क्व तहि भवति ? अन्तःकोटाकोटिसागरोपमस्थितिकेषु कर्मसु बन्धमापद्यमानेषु विशुद्धपरिणामवशात् सत्कर्मसु च ततः संख्येयपागरोपमसहस्रोनायामन्तःकोटाकोटिसागरोपमस्थितौ स्थापितेषु प्रथमसम्यक्त्वयोग्यो भवति।" __ -त०वा० २,३,१-२ आगे त० वा० में प्रथम सम्यक्त्व के अभिमुख हुए जीव की योग्यता को प्रकट करते हुए यह कहा गया है “स पुनर्भव्यः पंचेन्द्रियः संज्ञी मिथ्यादृष्टि: पर्याप्तकः सर्वविशुद्धः प्रथमसम्यक्त्वमुत्पाद १. त० वा० २,४६,८ २. यह पद इसके पूर्व छठी व सातवीं चुलिका में क्रम से प्ररूपित सब कर्मों की उत्कृष्ट और जघन्य स्थितियों की ओर संकेत करता है । २१२ / षट्सण्डागम-परिशील Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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