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________________ तत्पश्चात् तियंच, मनुष्य और देवों में उनकी प्ररूपणा है । इ लिए प्रकृत सूत्र में 'देव' शब्द के पूर्व में 'नारक' शब्द का प्रयोग होना चाहिए।' इस शंका का समुचित समाधान वहाँ कर दिया गया है। २. तत्त्वार्थवार्तिक में अवधिज्ञान के देशावधि-परमावधि आदि भेदों का निर्देश करते हुए उनके विषय की विस्तार से जो प्ररूपणा की गई है वह षटखण्डागम के आधार से की गई दिखती है। _ष० ख० में वर्गणा खण्ड के अन्तर्गत 'प्रकृति' अनुयोगद्वार है। वहाँ अवधिज्ञानावरणीय की प्रकृतियों का निर्देश करते हुए प्रसंगवश अवधिज्ञान के देशावधि-परमावधि आदि भेदों का निर्देश किया गया है तथा उनके विषय की प्ररूपणा द्रव्य-क्षेत्रादि के आश्रय से पन्द्रह गाथासूत्रों में विस्तारपूर्वक की है। तत्त्वार्थवार्तिक में जो अवधिज्ञान के विषय की प्ररूपणा है उसके आधार वे गाथासूत्र ही हो सकते हैं। उदाहरण के रूप में इस गाथासूत्र को देखा जा सकता है कालो चदुण्ण वुड्ढी कालो भजिदव्वो खेत्तवुड्ढीए । वुड्ढीए दव्व-पज्जय भजिदव्वा खेत्त-काला दु॥-पु० १३, पृ० ३०६ इसका त० वा० के इस सन्दर्भ से मिलान कीजिए "उक्तायां वृद्धौ यदा कालवृद्धिस्तदा चतुर्णामपिवृद्धिनियता । क्षेत्रवृद्धौ कालवृद्धिर्भाज्यास्यात् कालवृद्धिः स्यान्नेति । द्रव्य-भावयोस्तु वृद्धिनियता । द्रव्यवृद्धी भाववृद्धिनियता, क्षेत्रकाल-वृद्धिः पुनर्भाज्या स्याद्वा नवेति । भाववृद्धावपि द्रव्यवृद्धिनियता, क्षेत्र-कालवृद्धिर्भाज्या स्याद्वा न वेति ।" - -त० वा० १,२२, ५ पृ० ५७ आगे यहाँ एकक्षेत्र और अनेकक्षेत्र अवधिज्ञानों का स्वरूप भी दोनों ग्रन्थों (ष०ख० सूत्र ५,५, ५७-५८ और त० वा० १,२२,५ पृ० ५७) में द्रष्टव्य है। ३. त० वा० में 'जीव-भव्याभव्यत्वानि च' इस सूत्र (२-७) की व्याख्या के प्रसंग में एक यह शंका की गई है कि जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व इन तीन पारिणामिक भावों के साथ 'सासादनसम्यग्दृष्टि' इस द्वितीय गुण को भी ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि वह भी जीव का साधारण पारिणामिक भाव है। कारण यह कि 'सासादनसम्यग्दृष्टि यह कौन-सा भाव है ? वह पारिणामिक भाव है' ऐसा आर्ष (ष० ख०) में कहा गया है । (त०वा० २,७,११) यहाँ 'आर्ष' से शंकाकार का अभिप्राय जीवस्थान के अन्तर्गत भावानुयोगद्वार के इस सूत्र से रहा है "सासणसम्मादिट्ठि त्ति को भावो ? स पारिणामिओ भावो।" --सूत्र १,७,३ (पु० ५) । उपर्युक्त शंका का यथेष्ट समाधान भी वहाँ कर दिया गया है। आगमे हि जीवस्थानादौ सदादिष्वनुयोगद्वारेणाऽऽदेशवचने नारकाणामेवादौ सदादिप्ररूपणा कृता। ततो नारकशब्दस्य पूर्वनिपातेन भवितव्यमिति ।-त० वा० १,२१, ६; ष०ख० सूत्र १,१,२४-२५ (पु० १); सू० १,२,१५ (पु० ३); सूत्र १,३,५; सूत्र १,४, ११; सूत्र १,५,३३ (पु० ४); १,६,२१; सूत्र १,७,१०; सूत्र १,८,२७ (पु० ५); इत्यादि । २. ष० ख० पु० १३, पृ० ३०१-२८ तथा त० वा० १, २२,५ पृ० ५६-५७ (ये गाथासूत्र 'महाबन्ध' में उपलब्ध होते हैं)। २१० / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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