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________________ सम्माइट्ठी संजदासजदा त्ति । मणुस्सा चोद्दससु गुणट्ठाणेसु अत्थि मिच्छाइट्ठी....' 'सजोगिकेवली अजोगिकेवलि त्ति । देवा चदुसु ट्ठाणेसु अत्थि मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्माइद्वित्ति ।" -ष० ख०, सूत्र १,१, २४-२८ इसी प्रसंग को सर्वार्थसिद्धि में देखिए "विशेषेण गत्यनुवादेन नरकगतौ सर्वासु पृथिवीसु आद्यानि चत्वारि गुणस्थानानि भवन्ति । तियंग्गतौ तान्येव संयतासंयतस्थानाधिकानि भवन्ति । मनुष्यगतौ चतुर्दशापि सन्ति । देवगतो नारकवत्।" -स०सि०, पृ०१४ ___ यहाँ यह स्मरणीय है कि षट्खण्डागम की रचना के समय और उसके पूर्व भी साधुसमुदाय के मध्य में तत्त्वचर्चा हुआ करती थी। इसलिए उसमें शंका-समाधान को महत्त्व प्राप्त था । साथ ही, अनेक शिष्यों के बीच में रहने से उस तत्त्वचर्चा के समय उनकी बुद्धि की हीनाधिकता और रुचि का भी ध्यान रखा जाता था। इसलिए विशदतापूर्वक विस्तार से तत्त्व का व्याख्यान हुआ करता था। तदनुसार ही आगमपद्धति पर प्रस्तुत षट्खण्डागम की रचना हुई है। इसीलिए उसमें जहाँ तहाँ कुछ पुनरुक्ति भी हुई है। पर सर्वार्थसिद्धिकार के सामने यह समस्या नहीं रही। उन्हें विवक्षित तत्त्व का व्याख्यान संक्षेप में करना तो अभीष्ट था, पर विशदतापूर्वक ही उसे करना था। तदनुसार उन्होंने संक्षेप को महत्त्व देकर भी कुछ भी अभिप्राय छूट न जाय, इसका विशेष ध्यान रखा है। उदाहरणस्वरूप ऊपर के सन्दर्भ में ष० ख० में जहाँ चारों गतियों के प्रसंग में पृथक्पृथक् अनेक बार उन गुणस्थानों का उल्लेख किया गया है वहाँ सर्वार्थसिद्धि में नरकगति के प्रसंग में सम्भव उन चार गुणस्थानों का पृथक-पृथक उल्लेख करके आगे तिर्यंचगति में उनका पृथक्-पृथक् पुनः उल्लेख न करके यह कह दिया है कि एक संयतासंयत गुणस्थान से अधिक वे ही चार गुणस्थान तिर्यंच गति में सम्भव हैं। इसी प्रकार आगे मनुष्यगति के प्रसंग में ष० ख० में जहां पृथक्-पृथक् चौदह गुणस्थानों का उल्लेख किया गया है वहाँ स०सि० में इतना मात्र निर्देश कर दिया गया है कि मनुष्यगति में चौदहों गुणस्थान सम्भव हैं। इसी प्रकार देवगति के प्रसंग में ष० ख० में जहाँ उन चार गुणस्थानों का पुन: उल्लेख किया गया है वहाँ स० सि० में यह स्पष्ट कर दिया है कि देवगति में नारकियों के समान प्रथम चार गुणस्थान सम्भव हैं। __ इस प्रकार स० सि० में संक्षेप को महत्त्व देकर भी ष० ख० के प्रसंग प्राप्त उस सन्दर्भ के सभी अभिप्राय को अन्तहित कर लिया है। शेष मार्गणा ष० ख० में गतिमार्गणा के पश्चात् शेष इन्द्रिय आदि मार्गणाओं में इसी प्रकार से गुणस्थानों के सद्भाव को दिखाते हुए प्रसंगानुसार कुछ अन्य भी विचार किया गया है। जैसेइन्द्रिय मार्गणा में एकेन्द्रिय आदि जीवों के यथासम्भव बादर-सूक्ष्म व पर्याप्त-अपर्याप्त आदि भेदों का निर्देश। इन्हीं भेदों का उल्लेख वहाँ आगे कायमार्गणा के प्रसंग में भी पुनः किया गया है। पश्चात् क्रमप्राप्त योगमार्गणा में क्रम से योग के भेद-प्रभेदों को दिखाकर उनमें कौन योग किन जीवों के सम्भव हैं, इसे स्पष्ट किया है व इसी प्रसंग में पर्याप्ति-अपर्याप्तियों का भी विस्तार से विचार किया गया है। षट्खण्डागम की अन्य प्रन्थों से तुलना / १६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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