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________________ रहित--एक नपुंसक वेद से युक्त होते हैं । एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रियपर्यन्त सब तिर्यच शुद्ध नपुंसकवेदी होते हैं तथा असंज्ञी पंचेन्द्रिय से लेकर संयतासंयत तक वे तिर्यंच तीनों वेदों से सहित होते हैं । मनुष्य मिथ्यादृष्टि से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक तीनों वेदवाले हैं और उस अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के आगे सब उस वेद से रहित होते हैं। चारों गुणस्थानवर्ती देव स्त्री और पुरुष इन दो वेदों से युक्त होते हैं।' इस प्रकार गुणस्थान जी प्रमुखता से ष० ख० में जो वेदविषयक प्ररूपणा की गई है उसका अभिप्राय तत्त्वार्थसूत्र के उन सूत्रों में संक्षेप से प्रकट कर दिया गया है । १६. तत्त्वार्थसूत्र में यथाप्रसंग नारकियों. मनुष्य-तिर्यंचों और देवों की उत्कृष्ट व जघन्य आयु की प्ररूपणा की गई है। १० ख० में आयु की वह प्ररूपणा दूसरे क्षुद्रकबन्ध खण्ड के अन्तर्गत ग्यारह अनुयोगद्वारों में से दूसरे 'एक जीव की अपेक्षा कालानुगम' अनुयोगद्वार में गति मार्गणा के प्रसंग में की गई है । विशेष इतना है कि वहाँ वह सामान्य, पर्याप्त व अपर्याप्त आदि विशेषता के साथ कुछ विस्तारपूर्वक की गई है, जब कि तत्त्वार्थसूत्र में उन भेदों की विवक्षा न करके वह सामान्य से की गई है। जैसे तत्त्वार्थसूत्र में पृथिवीक्रम के अनुसार नारकियों को उत्कृष्ट आयु १,३,७,१०,१७,२२ और ३३ सागरोपम (सूत्र ३-६) तथा जघन्य अायु उनकी द्वितीयादि पृथिवियों में क्रम से १,३,७,१०,१७ और २२ सागरोपम निर्दिष्ट की गई है। प्रथम पृथिवी में उनकी जघन्य आयु दस हजार वर्ष कही गई है (४,३५-३६) । ष० ख० में भी उनकी आयु का प्रमाण यही कहा गया है (सूत्र २,२,१-६)। तत्त्वार्थसूत्र में मनुष्यों की उत्कृष्ट और जघन्य आयु क्रम से तीन पल्योपम और अन्तर्मुहूर्त कही गई है (३-३८)। १० ख० में उसका उल्लेख मनुष्य सामान्य व मनुष्यपर्याप्त आदि भेदों के साथ किया गया है, फिर भी मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यणी की जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट आयु पूर्वकोटि पृथक्त्व से अधिक तीन पल्योपम प्रमाण ही कही गई है (२,२,१६-२२)। __ यहाँ १० ख० में जो उसे पूर्वकोटि पृथक्त्व से अधिक तीन पल्योपम कहा गया है उसमें मनुष्यपर्याय की विवक्षा रही है । जो कर्मभूमि का मनुष्य यहाँ की आयु को बिताकर दान के अनुमोदन से भोगभूमि में मनुष्य उत्पन्न होता है उसके यह मनुष्य पर्याय का काल घटित होता है । इसी पद्धति से आगे तिर्यंचों और देवों के कालप्रमाण की भी प्ररूपणा इन दोनों ग्रन्थों में अपनी-अपनी पद्धति से की गई है। २० तत्त्वार्थसूत्र में स्कन्ध और अणुरूप पुद्गल भेद, संघात अथवा भेद-संघात से किस १. १० ख० सूत्र १,१,१०१-११० २. त० सूत्र ३-६ (उत्कृष्ट) व ४,३५-३६ (जघन्य) ३. वही ३,३८-३६ ४. वही ४, २८-४२ ५. सूत्र २,२,२१ की धवला टीका (पु० ७, पृ० १२५-२६) १७४ | षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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