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________________ किया गया है (गा० १६५) । ०ख० में उनके द्रव्यप्रमाण का निर्देश करते हुए कहा गया है कि क्षेत्र की अपेक्षा त्रसकायिकों के द्वारा अंगुल के असंख्यातवें भाग रूप वर्ग के प्रतिभाग से जगप्रतर अपहृत होता है।' निष्कर्ष के रूप में धवलाकार ने स्पष्ट किया है कि प्रतरांगुल के असंख्यातवें भाग का जगप्रतर में भाग देने पर जो लब्ध हो उतने त्रसकायिक जीव हैं। ___. मलाचार में गतियों के आश्रय से अल्पबहुत्व की प्ररूपणा करते हुए कहा गया है कि मनुष्यगति में मनुष्य स्तोक हैं, उनसे नरकगति में वर्तमान जीव असंख्यातगुणे, देवगति में वर्तमान जीव उनसे असंख्यातगुणे, सिद्धगति में वर्तमान मुक्त जीव उनसे अनन्तगुणे और तिर्यंचगति में वर्तमान जीव उनसे अनन्तगुणे हैं । ०ख० के दूसरे खण्ड क्षुद्रकबन्ध के अन्तर्गत ग्यारह अनुयोगद्वारों में अन्तिम अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार है। उसमें अनेक प्रकार से अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है। सर्वप्रथम वहाँ मूलाचारगत जिस अल्पबहुत्व का ऊपर उल्लेख किया गया है वह उसी रूप में उपलब्ध होता है। आगे मूलाचार में नरकादि गतियों में से प्रत्येक में भी पृथक्-पृथक् उस अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है । षट्खण्डागम में आदेश की अपेक्षा चारों गतियों में पृथक्-पृथक् उस अल्पबहुत्व की प्ररूपणा तो की गई है, पर उसका आधार गुणस्थान रहे हैं, इसलिए दोनों में समानता नहीं रही । यथा__ नरकगति में नारकियों में सासादन सम्यग्दृष्टि सबसे स्तोक हैं, सम्यग्गिथ्यादृष्टि संख्यातगुणे हैं, असंयतसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणे हैं, मिथ्यादृष्टि असंख्यातगुणे हैं । इसी क्रम से आगे प्रथम-द्वितीय आदि पृथिवियों में भी पृथक्-पृथक् उस अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है। किन्तु मूलाचार में गुणस्थानों की अपेक्षा न करके भिन्न रूप में उस अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है । जैसे___ सातवीं पृथिवी में नारकी सबसे स्तोक हैं, आगे पाँचवीं व छठी आदि पृथिवियों में वे उत्तरोत्तर क्रम से असंख्यातगुणे हैं, इत्यादि । १०. आगे मूलाचार के इस अधिकार में बन्ध के मिथ्यात्वादि कारणों का निर्देश करते हुए बन्ध के स्वरूप को दिखलाकर उसके प्रकृति-स्थिति आदि चार भेदों का उल्लेख किया गया है । तत्पश्चात् प्रकृति-बन्ध के प्रसंग में ज्ञानावरणादि पाठ-आठ मूल प्रकृतियों और उनकी उत्तर प्रकृतियों का उल्लेख किया गया है । आगे उनमें से मिथ्यादृष्टि आदि कितनी प्रकृतियों को १. सूत्र १,२,१०० (पु० ३) २. मूलाचार १२,१७०-७१ ३. सूत्र २,११,१-६ (पु० ७) ४. मूलाचार १२,१७२-८१ ५. सूत्र १,८,२७-३० (पु० ५) १५८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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