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________________ चूलिका___ आगे का ग्रन्थ चूलिका है। जिन अर्थों की पूर्व में सूचना-मात्र की गई है, स्पष्टीकरण उनका नहीं किया गया है, उनकी प्ररूपणा करना चूलिका का प्रयोजन होता है। तदनुसार पूर्व में जो यहाँ 'जत्थेउ मरइ जीवो' इत्यादि गाथा (सूत्र १२५) के द्वारा निगोदजीवों के मरने व उत्पन्न होने की सूचना की गई है उसे स्पष्ट करते हुए यहाँ प्रथमतः उनके उत्पत्ति के क्रम की प्ररूपणा की गई है, जिसमें आवलि के असंख्यातवें भाग काल तक एक, दो, तीन आदि समयों में निरन्तर उत्पन्न होनेवाले तथा एक, दो, तीन आदि समयों को आदि लेकर आवलि के असंख्यातवें भाग तक का अन्तर करके उत्पन्न होनेवाले निगोद जीवों के प्रमाण को प्रकट किया गया है व उनके उत्पन्न होने के काल और उन उत्पन्न होनेवाले जीवों के अल्पबहुत्व को भी स्पष्ट किया गया है (५८१-६२८) । यथा सर्वप्रथम यह स्पष्ट किया गया है कि प्रथम समय में जो निगोद जीव उत्पन्न होता है उसके साथ अनन्त जीव उत्पन्न होते हैं। एक समय में अनन्तानन्त साधारण जीवों को ग्रहणकर एक शरीर होता है और असंख्यात लोकप्रमाण शरीरों को ग्रहणकर एक निगोद होता है। निगोद और पुलवि ये समानार्थक शब्द हैं । एक पुलवि में जो शरीर और उन शरीरों के भीतर अनन्तानन्त जीव रहते हैं, आधार में आधेय के उपचार से उन दोनों को ही निगोद कहा जाता है। आगे इस उत्पत्ति के क्रम को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि द्वितीय समय में असंख्यातगुणे हीन जीव उत्पन्न होते हैं। इसी क्रम से आगे आवलि के असंख्यातवें तक उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे जीव उत्पन्न होते हैं । तत्पश्चात् एक, दो, तीन समय से लेकर अधिक-से-अधिक आवलि प्रमाणकाल के अन्तर से पुनः उसी क्रम से आवलि के असंख्यातवें भाग तक वे निरन्तर उत्पन्न होते हैं। अल्पबहुत्व अद्धाअल्पबहुत्व और जीवअल्पबहत्व के भेद से दो प्रकार का है। उनमें से प्रद्धाअल्पबहुत्व में सान्तर और निरन्तर समय में उन्पन्न होनेवाले जीवों के और इन कालों के अल्पबहुत्व को प्रकट किया गया है । जीवअल्पबहुत्व में काल के आश्रय से जीवों के अल्पबहुत्व को दिखलाया गया है। आगे स्कन्ध, अण्डर, आवास और पुलवियों में जो बादर और सूक्ष्म जीव उत्पन्न होते हैं वे पर्याप्त, अपर्याप्त या मिश्र होते हैं, इसे स्पष्ट किया गया है (६२६-३०)। निगोदों का मरण-क्रम इस प्रकार निगोदों के उत्पत्तिकम को दिखलाकर आगे पूर्वनिर्दिष्ट गाथा के पूर्वार्ध में सूचित मरण के क्रम का विवेचन करते हुए कहा गया है कि जो निगोद जघन्य उत्पत्तिकाल से उत्पन्न होते हुए जघन्य प्रबन्धनकाल से प्रबद्ध एकरूपता को प्राप्त हुए हैं उन बादर निगोदों का तथा प्रबद्धों का निगमन मरणक्रम के अनुसार होता है। आगे इस मरणक्रम के प्रसंग में कहा गया है कि सर्वोत्कृष्ट गणश्रेणीमरण से मरण को प्राप्त हए तथा सबसे दीर्घ काल में निर्लेप्यमान उन जीवों के अन्तिम समय में मरने से शेष रहे निगोदों का प्रमाण आवलि के असंख्यातवें भाग मात्र रहता है। इसे स्पष्ट करते हुए आयुओं के अल्पबहुत्व को प्ररूपणा की गई है (६३१-३६) । ऊपर जिस मरणक्रम का उल्लेख किया गया है वह यवमध्यमरणक्रम और अयवमध्य मूलग्रन्थगत विषय का परिचय | १३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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