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________________ वाले अन्यतर उत्तरकुरु और देवकुरु के मनुष्य के होता है (४१७-१८), इतना सामान्य से कहकर आगे ग्यारह (४१६-२६) सूत्रों में उसके लक्षणों को प्रकट किया गया है। वैक्रियिक शरीर का उत्कृष्ट प्रदेशाग्र किसके होता है, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया कि वह बाईस सागरोपम प्रमाण स्थितिवाले अन्यतर आरण-अच्युत कल्पवासी देव के होता है (४३७-३२), यह कहते हुए आगे ग्यारह (४३३-४६) सूत्रों में उसकी कुछ विशेषताओं को प्रकट किया गया है। जघन्य पद की अपेक्षा औदारिक शरीर का जघन्य प्रदेशाग्र किसके होता है, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि वह अन्यतर सूक्ष्म निगोद जीव अपर्याप्त के होता है (४७६-८०)। वैक्रियिकशरीर का जघन्य प्रदेशाग्र किसके होता है, इसके स्पष्टीकरण में कहा गया है कि वह असंज्ञी पंचेन्द्रियों में से आये हुए अन्यतर देव-नारकी के होता है, जो प्रथम समयवर्ती व प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ होकर जघन्य योग से युक्त होता है (४८३-८५)। ऊपर औदारिक और वैक्रियिक शरीर का उदाहरण दिया गया है। इसी पद्धति से अन्य शरीरों के उत्कृष्ट व जघन्य प्रदेशाग्र के स्वामी की प्ररूपणा की गई है। ६. अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार में पांचों शरीरों के प्रदेशाग्र विषयक अल्पबहुत्व को प्रकट करते हुए औदारिक शरीर के प्रदेशाग्र को सबसे स्तोक, वैक्रियिक शरीर के प्रदेशाग्र को असंख्यातगुणा, आहारक शरीर के प्रदेशाग्र को असंख्यातगुणा, तैजस शरीर के प्रदेशाग्र को अनन्तगुणा और कार्मणशरीर के प्रदेशाग्र को अनन्तगणा निर्दिष्ट किया गया है (४६७५०१)। ___ इस प्रकार छह अनुयोगद्वारों के समाप्त होने पर बाह्य वर्गणा के अन्तर्गत उन चार अनुयोग द्वारों में यह शरीरप्ररूपणा नाम का दूसरा अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। ३. शरीरविस्रसोपचय प्ररूपणा ___ यह बाह्य वर्गणाविषयक तीसरा अनुयोगद्वार है। इसमें ये छह अनुयोगद्वार हैं-अतिभाग प्रतिच्छेदप्ररूपणा, वर्गणाप्ररूपणा, स्पर्धकप्ररूपणा, अन्तरप्ररूपणा, शरीरप्ररूपणा और अल्पबहुत्व (५०२)। पाँच शरीरों सम्बन्धी परमाणपुदगलों के स्निग्ध आदि गुणों के द्वारा उन पाँच शरीरगत पदगलों में जो पदगल संलग्न होते हैं उनका नाम विनसोपचय है। उन विस्रसोपचयों के सम्बन्ध का कारण जो पाँच शरीरों से सम्बन्धित परमाणु पुद्गलगत स्निग्ध आदि गुण है उसे भी कारण में कार्य के उपचार से विस्रसोपचय कहा जाता है। इसी स्निग्धादि गुण की यहाँ विवक्षा है। अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा के अनुसार एक-एक औदारिक प्रदेश में सब जीवों से अनन्तगुणे अनन्त अविभागप्रतिच्छेद होते हैं (५०३-५) । वर्गणाप्ररूपणा के अनुसार सब जीवों से अनन्तगुणे अनन्त अविभागप्रतिच्छेदों की एक वर्गणा होती है । इस प्रकार की वर्गणाएँ अभव्यों से अनन्तगुणी और सिद्धों के अनन्तवें भाग मात्र होती हैं (५०६-७)। स्पर्धकप्ररूपणा के अनुसार अभव्यों से अनन्तगुणी और सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण उन वर्गणाओं का एक स्पर्धक होता है। इस प्रकार के स्पर्धक अभव्यों से अनन्तगुणे और सिद्धों मूलग्रन्थगत विषय का परिचय | १३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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