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________________ सर्वार्थसिद्धि (२-३६) में उक्त औदारिक शरीर की निरुक्ति इस प्रकार को गई है'उदारे भवमौदारिकम्, उदारं प्रयोजनमस्येति वा औदारिकम्'। अभिप्राय यही है कि जो शरीर स्थूल होता है अथवा जिसका प्रयोजन स्थूल होता है उसका नाम औदारिक शरीर है । आगे इसी प्रकार से वैक्रियिक आदि अन्य चार शब्दों की भी निरुक्ति की गई है । २. प्रदेशप्रमाणानुगम में औदारिक आदि शरीरों के प्रदेशप्रमाण को स्पष्ट करते हुए पाँचों शरीरों में से प्रत्येक के प्रदेशाग्र का प्रमाण अभव्यों से अनन्तगुणा और सिद्धों के अनन्तवें भाग मात्र कहा गया है (२४२-४४) । ३. निषेक प्ररूपणा में ज्ञातव्य के रूप में इन छह अनुयोगद्वारों का निर्देश किया गया है-समुत्कीर्तना, प्रदेश प्रमाणानुगम, अनन्तरोपनिधा, परम्परोपनिधा, प्रदेशविग्च और अल्पबहुत्व (२४५)। समुदीर्तना -यहाँ यह स्पष्ट किया गया है कि यथासम्भव औदारिक आदि शरीरों में विवक्षि त शरीरवाले जीव ने जिस प्रदेशाग्र को ग्रहण किया है वह कितने काल रहता है। यथा--औदारिक शरीरवाले जीव ने प्रथम समयवर्ती आहारक और प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ होकर औदारिक शरीर के रूप में जिस प्रदेशाग्र को बाँधा है उसमें से कुछ एक समय जीव के साथ रहता है, कुछ दो समय रहता है, कुछ तीन समय रहता है, इस क्रम से वह औदारिक शरीर की उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण तीन पल्योपम काल तक रहता हैं । यही अवस्था वैक्रियिक व आहारक शरीर की भी है। विशेष इतना है कि वैक्रियिक शरीर के रूप में ग्रहण किया गया वह प्रदेशाग्र, उसी क्रम से उसकी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण तेतीस सागरोपम तक और आहारक के रूप में ग्रहण किया गया वह प्रदेशाग्र उसकी स्थिति प्रमाण अन्तर्मुहुर्त काल रहता तैजस शरीर के रूप में ग्रहण किया गया प्रदेशाग्र उसी क्रम से रहता हुआ उत्कृष्ट रूप में छयासठ सागरोपम काल तक रहता है। कार्मणशरीर के रूप में बांधे गये प्रदेशाग्र में से कुछ एक समय अधिक आवलिकाल तक, कुछ दो समय अधिक आवलि काल तक, कुछ तीन समय अधिक आवलि काल तक, इस क्रम से वह उत्कृष्ट रूप में कर्मस्थिति काल तक रहता है (२४७-४८)। यहाँ इतना विशेष समझना चाहिए कि तैजस और कार्मण शरीरों में प्रथम समयवर्ती आहारक और प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ होने का नियम नहीं है। कारण यह कि इन दोनों शरीरों का सम्बन्ध जीव के साथ अनादि काल से है, अतएव जहाँ कहीं भी स्थापित करके उनकी प्रदेशरचना उपलब्ध होती है। प्रदेशप्रमाणानुगम-यहाँ प्रथम समयवर्ती आहारक और प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ औदारिक शरीरवाले, वैक्रियिक शरीरवाले व आहारक शरीरबाले जीव के द्वारा प्रथमादि समयों में बाँधा गया प्रवेशाग्र कितना होता है; इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि वह अभव्यजीवों से अनन्तगुणा और सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण होता है । यह प्रथमादि समयों का क्रम यथाक्रम से अपने-अपने शरीर की उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण तीन पल्य, तेतीस सागरोपम, अन्तर्मुहूंत तक समझना चाहिए (२४६-५५)। यही क्रम तैजस और कार्मण शरीरों का है। विशेष इतना है कि उनके प्रदेशाग्र के बाँधे जाने का काल प्रथमादि समय से लेकर उत्कृष्ट रूप में क्रम से छयासठ सागरोपम और कर्म स्थिति मलग्रन्थगत विषय का परिचय / १२९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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