SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 180
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ के आगे निगोदजीव किससे अधिक हो सकते हैं । इसके समाधान में धवलाकार ने यह स्पष्ट किया है कि 'वनस्पतिकायिक' यह कहने पर बादरनिगोद जीवों से प्रतिष्ठित - अप्रतिष्टित जीवों को नहीं ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि आधे से आधार में भेद देखा जाता है । इस स्थिति में वनस्पतिकायिकों से निगोद जीव विशेष अधिक हैं' ऐसा कहने पर बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जीवों से और बादर निगोदप्रतिष्ठित जीवों से वे विशेष अधिक हैं, यह अभिप्राय ग्रहण करना चाहिए ।" धवलाकार आ० वीरसेन के द्वारा जो उपर्युक्त शंका-समाधान किया गया है वह सूत्र आसादना के भय से ही किया गया है, अन्यथा जैसा कि उस शंका-समाधान से स्पष्ट है, उन्हें स्वयं भी वनस्पतिकायिकों से निगोदजीवों की भिन्नता अभीष्ट नहीं रही है । वे 'वनस्पतिकायिक विशेष अधिक हैं' इस सूत्र (७४) की व्याख्या में भी यह स्पष्ट कहते हैं कि सब आचार्यों से सम्मत अन्य सूत्रों में यहीं पर यह अल्पबहुत्व समाप्त हो जाता हँ व आगे अन्य अल्पबहुत्व प्रारम्भ होता है, परन्तु इन सूत्रों में वह अल्पबहुत्व यहाँ समाप्त नहीं हुआ है । प्रकृत विचार- इस प्रकार वनस्पतिकायिकों से निगोदजीवों के भेद-अभेद का प्रासंगिक विचार करके आगे उन निगोदजीवों के लक्षण आदि का विचार किया जाता है। मूल सूत्र में साधारण जीवों का सामान्य लक्षण साधारण आहार और साधारण उच्छ्वास - निःश्वास कहा गया है । शरीर के योग्य पुद्गलस्कन्धों के ग्रहण का नाम आहार है। एक जीव के आहार ग्रहण करने पर उस शरीर में अवस्थित अन्य सब ही जीव आहार को ग्रहण करते हैं । इसी प्रकार एक जीव के उच्छ्वास - निःश्वास को ग्रहण करने पर वे सब ही जीव उच्छ्वास - निःश्वास को ग्रहण करते हैं । यही उनका साधारण या सामान्य लक्षण है । अभिप्राय यह है कि जिस शरीर में पूर्व में उत्पन्न हुए निगोद जीव सबसे जघन्य पर्याप्ति-काल में शरीर, इन्द्रिय, आहार और आन-पान इन चार पर्याप्तयों से पर्याप्त होते हैं उस शरीर में उनके साथ उत्पन्न हुए मन्द योगवाले निगोदजीव भी उसी काल में उन पर्याप्तयों को पूरा करते हैं । यदि प्रथम उत्पन्न हुए जीव दीर्घ काल में उन पर्याप्तयों को पूरा करते हैं तो उस शरीर में पीछे उत्पन्न जीव उसी काल में उन पयाप्तियों को पूर्ण करते हैं । उस आहार से जो शक्ति उत्पन्न होती है वह पीछे उत्पन्न हुए जीवों के प्रथम समय में ही पायी जाती है। इसी से सब जीवों का सामान्य आहार होता है। जिस कारण सब जीवों के परमाणु पुद्गलों का ग्रहण एक साथ होता है, इसी कारण उनके आहार, शरीर, इन्द्रिय और उच्छ्वास - निःश्वास की उत्पत्ति एक साथ होती । वह जिस शरीर में एक जीव मरता है उसमें अवस्थित अनन्त जीव मरते हैं । इसी प्रकार जिस निगोदशरीर में एक जीव उत्पन्न होता है उस शरीर में अनन्त ही जीव उत्पन्न होते हैं । इसका अभिप्राय यह है कि एक निगोदशरीर में एक संख्यात व असंख्यात जीव नहीं उत्पन्न १. धवला पु० ७, पृ० ५३६-४१ (शंका-समाधान का यह प्रसंग आगे द्रष्टव्य है) । २. पु० ७, पृ० ५४६ १२६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy